जलझूलनी एकादशी पर ठाकुर जी ने किया नोका विहार।

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 जलझूलनी एकादशी का सनातन धर्म एवं संस्कृति में विशेष महत्व – चिरंजीव दास महाराज।
जमवारामगढ़ उपखंड क्षेत्र में 26 सितंबर मंगलवार को धूमधाम से मनाया गया जलझूलनी एकादशी का पावन पर्व। राधे गोविन्द देव मंदिर महंत चिरंजीव दास महाराज ने बताया की जलझूलनी एकादशी को ढोल ग्यारस या परिवर्तनी एकादशी के नाम से जाना जाता है। पुराणों के अनुसार सनातन धर्म एवं संस्कृति में जलझूलनी एकादशी का बडा महत्व है। इस दिन महिलाओं, पुरूषों एवं बालकों ने भी एकादशी व्रत रखा। एकादशी के दिन मंदिरों में सुबह से ही दान पुण्य का दौर चला। इस दौरान मंदिरों को दुल्हन की भांति सजाया गया एवं सायंकाल ठाकुर जी को ढोल में बैठाकर नोका विहार कराया गया। पुराणों के अनुसार श्रीकृष्ण जन्म के अठारहवें दिन माता यशोदा ने उनका जल पूजन (घाट पूजन) किया था। इसी दिन को ‘जलझूलनी ग्यारस’ के रूप में मनाया जाता है। जलवा पूजन के बाद ही नवीन संस्कारों की शुरुआत होती है। जलवा पूजन को कहीं पर सूरज पूजा कहते हैं तो कहीं दश्टोन पूजा कहा जाता है। जलवा पूजन को कुआं पूजन भी कहा जाता है।
 इस ग्यारस को परिवर्तिनी एकादशी,  जलझूलनी एकादशी, वामन एकादशी आदि के नाम से भी जाना जाता है।’डोल ग्यारस’ के अवसर पर कृष्ण मंदिरों में पूजा-अर्चना होती है। भगवान कृष्ण की प्रतिमा को ‘डोल’ (रथ) में विराजमान कर उनकी शोभायात्रा निकाली जाती है।
       ऐसी भी मान्यता है कि वर्षा ऋतु में पानी खराब हो जाता है, लेकिन एकादशी पर भगवान के जलाशयों में जल विहार के बाद उसका पानी निर्मल होने लगता है। शोभायात्रा में मंदिरों के विमान निकलते है, कंधों पर विमान लेकर चलने से मूर्तियां झूलती हैं ऐसे में एकादशी को जल झूलनी कहा जाता है।
     एकादशी के दिन व्रत रखकर भगवान कृष्ण की भक्ति करने का विधान है। इस व्रत में पवित्रता का विशेष ध्यान रखा जाता है, इस व्रत को करने से सभी तरह की कामना पूर्ण होती है, तथा रोग दोष और शोक मिट जाते हैं।
      शास्त्रों में ऐसा भी बताया गया है कि इस दिन भगवान करवट लेते हैं, इसलिए इसको स्थान परिवर्तिनी एकादशी भी कहते हैं इस दिन व्रत करने से वाजपेय यज्ञ का फल मिलता है। जो मनुष्य भगवान विष्णु के वामन रूप की पूजा करता है उससे तीनों लोक पूज्य होते हैं।

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