इन दिनों देश भर में सावन की मदमस्ती और भोले बाबा की आराधना का दौर पूरे परवान पर है। हर कहीं कांवड़ यात्रा का धरम सिर चढ़कर बोलने लगा है। ज्योतिर्लिंगों से लेकर गांव-शहरों और ढाणियों तक के शिवालयों तक कांवडियों की भरमार यही बता रही है। कांवड़ और सावन का रिश्ता शाश्वत है। यह श्रद्धा से लेकर श्राद्ध तक और शासन से लेकर प्रशासन के गलियारों तक अमरबेल की तरह छाया हुआ है। पीएम से लेकर सीएम तक, और मंत्री से लेकर संतरी तक और आका से लेकर अंधानुचरों तक कांवड़ किसी न किसी रूप में अपना वजू़द बनाए हुए है। जहाँ कांवड़ का जितना ज्यादा जोर, उतनी ही मस्ती और खुशी। शासन-प्रशासन के भोलेनाथ तो खुश ही होते हैं कांवड़ से।
सेवा करते-करते हो गए कांवड़
जिधर देखो उधर किसी न किसी भार से या कृत्रिम विनम्रता का लबादा ओढ़े हर आदमी कांवड़ की शक्ल में नज़र आता है। आलाकमान के आगे नेता और साहब के आगे करमचारी, ये सारे कांवड़ का धर्म ही तो निभा रहे हैं सर-सर, मैम-मैडम, मेम-मेम का मूल मंत्र जपते हुए मेमनों को भी लज्जित करते रहे हैं।
भालुनाथों की चाकरी
लोकतंत्र के महाराजाओं-महारानियों, आत्मघोषित जननायकों के आगे दरबारी, शाही नौकरी का मजा लूट रहे नौकरशाह, मंत्री के सामने सैक्रेट्री, सीएस के आगे आईएएस, आरएएस और विभिन्न प्रजातियों के हाकिम कांवड़ बने हुए अपना कद बढ़ाने के जतन में भिड़े हुए हैं। कई-कई जमातें तो कांवड़ की तर्ज पर झुक कर चापलूसी और जी हुजूरी में इतनी माहिर हो चली हैं कि बस। इनके लिए तो पूरा साल भर सावन होता है मौज-मस्ती भरा। वर्ष भर सावन का अनुभव करने वाले इन सावन के अंधों को हर तरफ हरा ही हरा दिखता है। हरे-हरे नोटों से लेकर हरे-भरे रसीले बिम्ब तक। राग-दरबारियों के बाड़ों में जो कांवड़ की तरह विनम्रता के रिकार्ड कायम कर रहे हैं वे ही आमजन के सामने धनुष की तरह तने रहकर ऐसे दिखते रहे हैं जैसे कि अभी प्रत्यंचा चढ़ाने की तैयारी हो।
प्रजाजन हुए कांवड़
इस जहाँ में हर आदमी कांवड़ बना फिर रहा है। सचिवालय से लेकर ग्राम पंचायतों तक। कोई फाईलों के बोझ से कांवड़ बना हुआ है तो कोई अपने आका या आला अफसर को खुश करने की टेंशन से। जितनी भारी कांवड़ उतनी ज्यादा मन्नतें पूरी। फिर अब तो कांवड़ के नाम पर लचीली, मजेदार और गुदगुदाने वाली आकृतियों को समर्पित करने का शगल भी बढ़ता जा रहा है।
जितनी भारी कांवड़, उतना रीझें ये नाथ
आजकल दान-दक्षिणा भरी कांवड़ों का चलन कुछ ज्यादा ही है। जितना बड़ा सूटकेस उतनी कांवड़ियों की आवभगत। वे लोग जलाभिषेक कर रहे हैं जिनमें पानी नहीं रहा। टाट को छिपाने के लिए पगड़ी-साफों और टोपियों का इस्तेमाल करने वाले खूब सारे हैं जिनके सर पर पानी की बूंद तक ठहर पाना मुश्किल है। वे सारे के सारे बहुरूपियों की तरह पानी का पैगाम गूंजाते हुए चरित्र, संस्कार और मानवता की बातें करने चले हैं।
अंतिम संस्कार तक साथ
अफसरों और करमचारियों की कई-कई जमातें तो कावड़ पूजा में माहिर हो चली हैं। ‘सारी दुनिया का बोझ हम उठाते हैं’ का उद्घोष लगाते हुए ये ही तो हैं कांवड़ यात्री, जो पूरी की पूरी व्यवस्था को अपने मकाम तक पहुँचाने में दिन-रात लगे हुए हैं। यों तो कम से कम चार-पांच लोग चाहिए होते हैं ठेठ तक पहुंचाने के लिए। अब एक-दो ही काफी हैं।
ये न हों तो ….
किसम-किसम के कांवड़ियों की भीड़ में बेचारे असली कांवड़िये तो वे हैं जो ईमानदारी और कर्त्तव्यनिष्ठा से अपने दायित्वों को पूरा करते हुए खुद झुककर कांवड़ की शक्ल पा चुके हैं। इन बेचारों के भरोसे ही चल रही है इन दुष्टनाथों की सत्ता। कुछ डिपार्टमेंट तो ऐसे ही हैं जहाँ चपरासी से लेकर बड़े साहब तक दिन-रात कावड़ की शक्ल में ही सर झुकाये नज़र आते हैं।
रोज दिखती है कांवड़ यात्रा
राजनीति से लेकर सत्ता और शासन की वीथियों में रोजाना कांवड़ यात्रा निकलती लगती है। कांवड़िये भर-भर कर लाते हैं और अपने इन पिशाचनाथों को अर्पित कर खुश होते हैं। इसकी एवज में इन्हें जो मिलता है उसे हर कांवड़ यात्री अच्छी तरह जानता है। इसकी महिमा का बखान शब्दों में भला कौन कर सकता है। शासन-परशासन के ये परिग्रही लूटनाथ किन द्रव्यों से भरी कांवड़ से खुश होते हैं, यह आजकल किसी को बताने की आवश्यकता नहीं होती, इनकी हरकतों, करतूतों और कारनामों के कच्चे चिट्ठे रोजाना सभी के सामने आते रहे हैं। इन्हीं से पता चल जाता है इनके शौक, प्रवृत्ति और विलक्षण रुचियों का।
कायम है सामन्ती ठसक
यों भी आजकल बड़े-बड़े लोगों और आकाओं को यह नहीं सुहाता कि कोई उनके सामने सीधा आए। उन्हें सबसे ज्यादा वे ही लोग पसन्द हैं जो या तो विनम्रता के साथ कनक दण्डवत करते हुए आएं अथवा अपनी कांवरों में कुछ न कुछ उनके लायक भरकर झुके हुए, आँखें नीची किए हाजिर हों। आकाओं के सामने आते वक्त तो सामंती परम्पराओं का पालन करना प्रजातंत्र में शान समझा जाने लगा है। फिर जितना बड़ा आका, उतनी ज्यादा और भरी हुई कावड़ें।
जैसे वे, ऐसे ही ये
कुछ लोग तो जिन्दगी भर कावरिये बने रहकर आकाओं को खुश करना ही अपना मुकद्दर मान बैठे हैं। ऐसे कांवरिये हर कहीं मिल ही जाते हैं। कभी भीड़ के रूप में तो कभी अकेले। कई गलियारों और राजपथों पर तो दिन-रात कांवरियों की दौड़ बनी रहती है। इन कांवरियों को कभी चैन नहीं मिलता। असंख्य अंध भक्त और अनुचर ऐसे हैं जिन्हें कांवरें थामते-थामते बरसों बीत गए। इन सभी राहों में किसम-किसम के कावरियों की भरमार है जिनका एकमेव मकसद यही है कि अपने इन अतृप्त और सदियों से भूखे-प्यासे नाथों को कैसे खुश रखा जाए। इनके खुश हो जाने पर उनकी सारी वैध-अवैध मुरादें अपने आप पूरी होने लगती हैं। राज्यों की राजधानियों से लेकर दिल्ली तक साल भर चलती और दौड़ती रहती हैं कांवड़ यात्राएं, अपने आकाओं को खुश करने की खातिर भर-भर कांवड़ों के।
लूटो-कमाओ मौज उड़ाओ
चकाचौंध भरे गलियारों के महानायक, लोकनायक और जननायक के रूप में अपने आपको प्रदर्शित करने वाले ये कावरिये ही हैं जो अपनी कांवरों में वह हर चीज भरे रखते हैं जिनसे ये मुफतिया नाथ और उनकी हैसियत का रुतबा दिखाकर अप्सराओं और राजरानियो के रूप में राजपथों पर ब्यूटी वॉक कर रही उनकी मेम साहिबाएं। सब्जी लाने से लेकर रसोई तक का सारा दारोमदार संभालने, मौज-मस्ती, भोग-विलास के तमाम इंतजामों को गुपचुप रूप से उपलब्ध कराने और गांधी छाप का संग्रहण कर भरने तक में माहिर इन कावरियों की कावरों का ही कमाल है कि आजकल मूल्यों का जमाना गायब हो गया है और उसका स्थान ले लिया है मूल्यवानों ने। जिसका मूल्य जितना अधिक है या जो ज्यादा मूल्य दे सकता है वही मूल्यवान है जमाने की नज़रों में भी, और अपने आकाओं की निगाह में ही। इस मामले में बड़े से बड़े लोग फेल हैं जिन्हें पुराने जमाने में अपने ज्ञान और अनुभवों की वजह से हर कहीं तरजीह दी जाती थी। आज न मूल्य रहे, न कोई आदर्श।
खुश करते रहो भालुनाथों का
लाल-नीली-पीली बत्तियों वाली गाड़ियों, सरकारी व्हील चेयर्स और एसी रूम्स में धँसे जात-जात के इन कावड़ियों ने आजादी के बाद से जाने कितने आकाओं को अपनी पूरी की पूरी श्रद्धा उण्डेल कर नहला दिया है। ये कांवड़िये ही बताते हैं सावन का पता। दो-तीन दशकों से इन कांवड़ियों ने पूरी हुकूमत पर ही कब्जा कर रखा है। हर कांवड़ भरी रहने लगी है। कोई सूटकेस के भार से तो कोई फाइलों के बोझ से। जिसकी लाठी उसकी भैंस की तर्ज पर जिसकी कावर जितनी भारी, उतना उसका कद। कावरों को भर-भर कर लाओ और अपने भालूनाथों को खुश करो।
ढोंगी बहुरूपियों की नौटंकियां
सरकार के बजरंगी मंत्रीजी रहे नेताजी से लेकर भगवाधारी मंत्री और आजकल वोट बैंक के जुगाड़ में नकली धार्मिकता ओढ़े, कपड़ों पर जनेऊ पहनकर पूजा का दिखावा करने वाले, नदियों का पूजन करने वाले, हनुमान चालीसा के नाटक अपनाकर तथाकथित धार्मिकता के जरिये मतदाताओं को लुभाने हिन्दूत्व के बाड़ों में घुसपैठ कर अपने आपको धार्मिक एवं भक्त के रूप में पेश करने वाले ढोंगियों ने तो कमाल ही कर दिया है। इनमें से खूब सारे तो खुद कांवड़ यात्रा में शामिल होकर बता चुके हैं कांवड़ कितना दखल रखती हैं भक्ति भाव की पूर्णता में। अपनी आँखें खुली रखें, आपको हर कहीं दिखायी देंगे ये कांवड़िये। इनसे सीखियें और खुश करिये अपने आकाओं को। क्योंकि जहाँ कांवड़ है वहीं सावन है। हम साल भर पा सकते हैं सावन की मौज मस्ती। फिर हर कहीं लगेगा सावन का हरा-हरा और सब तरफ भरा-भरा।
– डॉ. दीपक आचार्य