गैराज के मैकेनिक ने फिल्मी दुनिया को ऐसे किया गुलजार, जानिए कैसा रहा उनका सफर

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मशहूर गीतकार और फिल्मकार गुलजार आज 18 अगस्त को अपना 89वां जन्मदिन मना रहे हैं। गुलजार अपने गीतों के जरिए दिल्ली में बल्लीमारान की तंग गलियों से लेकर मुंबई में खुले आसमान की सैर कराते हैं। आप उनकी सक्रियता का अंदाजा इस बात से भी लगा सकते हैं कि वह बिना थके दशकों से गाने लिखते चले आ रहे हैं। गुलजार एक ऐसे कलाकार हैं, जिन्होंने अदबी इरादों से लेकर फिल्मी दुनिया तक में अपना परचम लहराया है। आइए जानते हैं उनके जन्मदिन के मौके पर गुलजार के जीवन से जुड़ी कुछ रोचक बातों के बारे में… जन्म
बता दें कि पंजाब के झेलम में 18 अगस्त 1934 को गुलजार का जन्म हुआ था। बंटवारे के बाद झेलम अब पाकिस्तान का हिस्सा है। भारत-पाकिस्तान बंटवारे के बाद गुलजार का परिवार अमृतसर आकर बस गया। गुलजार का असली नाम संपूर्ण सिंह कालरा है। लेकिन गुलजार का मन अमृतसर में नहीं लगा। जिसके कारण उन्होंने मायानगरी कही जाने वाली मुंबई का रुख किया।
ऐसे शुरू किया फिल्मी सफर
मुंबई आने के बाद गुलजार ने गुजारा करने के लिए एक गैराज में काम करना शुरू कर दिया। हालांकि इस दौरान उन्हें जब भी समय मिलता तो वह कविताएं लिखा करते थे। उन्होंने साल 1961 में अपने कॅरियर की शुरूआत विमल राय के सहायक के तौर पर की। इसके अलावा गुलजार ने ऋषिकेश मुखर्जी और हेमंत कुमार के साथ भी काम किया। तभी उनको फिल्म ‘बंदिनी’ में लिरिक्स लिखने का मौका मिला। बता दें कि फिल्म बंदिनी में उन्होंने ‘मोरा गोरा अंग लेई ले’ लिखा था। यह गीत इतना ज्यादा मशहूर हो गया कि फिर गुलजार ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा।
आवाज में है जादू
टेलीविजन, विज्ञापनों और फिल्मी गीतों में जब भी गुलजार के हिंदी और उर्दू के शब्द सुनने को मिलते हैं, तो दिल झूम उठता है। जब भी गुलजार मंचों से कुछ कहते हैं, तो उनकी बातें शायरी की तरह लगती हैं। इसलिए टेलीविजन पर दिखाए जाने वाले विज्ञापनों में निर्माताओं ने जानबूझकर गुलजार साहब की आवाज का इस्तेमाल किया है। गुलजार की आवाज में जादू है, जो किसी के दिल को भी पसीज देती है।
लाजवाब है शायरी का अंदाज
सोशल मीडिया पर मौजूद गुलजार की आवाज में शायरी सुनकर लोगों के कदम थम जाते हैं। उनकी आवाज में ऐसा जादू है कि न सिर्फ 80 साल के बुजुर्ग बल्कि 18 साल का जवान भी साथ बैठकर नज्में सुनता है। गुलजार साहब की लोकप्रियता का अंदाजा आप इस बात से लगा सकते हैं कि जब वह मंचों पर नज्म पढ़ते हैं, तो न जाने कितने लोग खामोशी के साथ उनको सुना करते हैं। आज की दिल्ली केवल पुरानी दिल्ली तक सिमटी थी। यहां पर महीन कहने वाले तो जहीन सुनने वाले होते थे। जब यह दौर गुलजार की आंखो के सामने से गुजरा तो वह उनकी शायरी में भी नजर आया।
गुलजार साहब का बचपन दिल्ली में गुजरा है। उन्होंने अपने बचपन को कुछ इस तरह से जिया कि वह तस्वीर उनके जहन में छप गई। यही वजह है कि उनके फिल्मी गीतों, नज्मों और गजलों में भी दिल्ली की गलियों का जिक्र होता है। करीब डेढ़ दशक पहले आई फिल्म ‘बंटी-बबली’ में ‘कजरारे-कजरारे’ गीत में ‘बल्लीमारान की गलियों’ का जिक्र किया गया। इस गीत को इस अंदाज में लिखा गया है कि इसे सुनने पर ऐसा लगता है कि यह कानों में शहद की तरह घुलता है।
दिल्ली के 1000 साल के इतिहास में ऐसी कई शख्सियत हुईं, जो लुभाने तो कुछ डराने का काम करती हैं। लेकिन शायर मिर्जा गालिब एक ऐसी शख्सियत हैं, जो लोगों की रूह में समा गए हैं। वहीं गुलजार भी खुद को मिर्जा गालिब से अलग न रख सके। वह भी उनकी शायरी से इश्क कर बैठे। गुलजार साहब जब दिल्ली के स्कूल में पढ़ाई करते थे, तो उनका उर्दू भाषा के प्रति गहरा लगाव है। इस भाषा के प्रति लगाव का एक बड़ा कारण मिर्जा गालिब थे।
गुलजार ने खुद को बताया कल्चरली मुसलमान
गुलजार ने एक इंटरव्यू के दौरान खुद को कल्चरली मुसलमान बताया था। इसके पीछे का कारण हिंदी और उर्दू का वह संगम है, जो उनके गीतों व शायरी में देखने को मिलता है। गुलजार साहब की शायरी में दर्द और खुशी दोनों की बराबर की कशिश देखने को मिलती है। उनकी शायरी में बंटवारे का दर्द भी झलकता है। बता दें कि जय हो गाने के लिए गुलजार साहब को ग्रैमी अवॉर्ड से सम्मानित किया गया था।

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