महान क्रांतिकारी खुदीराम बोस ने आज के रोज 11 अगस्त 1908 को देश की आजादी की खातिर फांसी को
गले लगा लिया था। आज जिस खुली हवा में हम सांस ले रहे है वह कितने ही लोगों के बलिदान से हमें मिली
है यह आज की पीढ़ी नहीं जानती। इस आजादी को प्राप्त करने के लिए कितनी ही माताओं ने अपने
नौनिहालों को देश पर कुर्बान किया यह इतिहास के पन्नों में दर्ज है। आज जरुरत इस बात की है की
इतिहास की यह धरोहर किताबों से बाहर आकर हमें बलिदान की गाथा बताएं। भारत की आजादी के लिए
अनेक क्रांतिवीर हँसते हँसते फांसी के फंदे पर झूल गए। इनमें से एक खुदीराम बोस ने आज के रोज 11
अगस्त 1908 को देश की आजादी की खातिर फांसी को गले लगा लिया था। भारत की आजादी के लिए
अपनी जान न्यौछावर करने वाले सैकड़ों साहसिक क्रांतिकारियों में एक नाम खुदीराम बोस भी है। खुदीराम
बोस का जन्म 3 दिसंबर, 1889 को बंगाल में मिदनापुर जिले के हबीबपुर गांव में हुआ था। खुदीराम बोस
जब बहुत छोटे थे तभी उनके माता-पिता का निधन हो गया था।
स्कूल के दिनों से ही खुदीराम बोस राजनीतिक और सार्वजनिक गतिविधियों में हिस्सा लेने लग गए थे। वे
सभा और जलूसों में शामिल होते थे तथा अंग्रेजी साम्राज्यवाद के खिलाफ नारे लगाते थे। भारत को गुलामी
की चंगुल से छुड़ाने के लिए बोस के भीतर इतनी ज्वाला थी कि उन्होंने 9वीं कक्षा के बाद पढ़ाई छोड़ दी थी
और जंग-ए-आजादी में कूद पड़े। 6 दिसंबर 1907 को बंगाल के नारायणगढ़ रेलवे स्टेशन पर किए गए बम
विस्फोट की घटना में भी बोस भी शामिल थे। इसके बाद एक क्रूर अंग्रेज अधिकारी किंग्सफोर्ड को मारने की
जिम्मेदारी दी गई और इसमें उन्हें साथ मिला प्रफ्फुल चंद्र चाकी का। दोनों बिहार के मुजफ्फरपुर जिले
पहुंचे और एक दिन मौका देखकर उन्होंने किंग्सफोर्ड की बग्घी में बम फेंक दिया। लेकिन उस बग्घी में
किंग्सफोर्ड मौजूद नहीं था. बल्कि एक दूसरे अंग्रेज अधिकारी की पत्नी और बेटी थीं। जिनकी इसमें मौत हो
गई।
1906 में मिदनापुर में लगी औद्योगिक कृषि प्रदर्शनी में प्रतिबंध की अवज्ञा करके खुदीराम पर्चे बांट रहे थे।
एक सिपाही ने उन्हें पकड़ने की कोशिश की। उन्होंने उसके मुंह पर एक जोरदार घूसा मारा और
‘साम्राज्यवाद मुर्दाबाद’ का नारा लगाते हुए बाकी बचे पत्रकों के साथ भाग निकले। अगली 28 फरवरी को
पकड़े गये तो भी पुलिस को चकमा देकर भागने में सफल रहे। दो महीनों बाद अप्रैल में फिर पकड़ में आए तो
उन पर राजद्रोह का अभियोग चलाया गया, लेकिन एक तो उनकी उम्र कम थी और दूसरे उनके खिलाफ एक
भी गवाह नहीं मिला, इसलिए 16 मई को महज चेतावनी देकर छोड़ दिए गए।
मगर अंग्रेज पुलिस ने उनका पीछा नहीं छोड़ा और वैनी रेलवे स्टेशन पर उन्हें घेर लिया। अपने को पुलिस से
घिरा देख प्रफुल्लचंद चाकी ने खुद को गोली मारकर अपनी शहादत दे दी जबकि खुदीराम पकड़े गए। 11
अगस्त 1908 को उन्हें मुजफ्फरपुर जेल में फांसी दे दी गई। अंग्रेज सरकार उनकी निडरता और वीरता से
इस कदर आतंकित थी कि उनकी कम उम्र के बावजूद उन्हें फांसी की सजा सुनाई गयी। यह बालक हाथ में
गीता लेकर खुशी-खुशी फांसी चढ़ गया।
फांसी के बाद खुदीराम बोस इतने लोकप्रिय हो गए कि बंगाल के जुलाहे एक खास किस्म की धोती बुनने
लगे। नौजवान ऐसी धोती पहनने लगे जिनकी किनारी पर श्खुदीरामश् लिखा होता था। उनकी शहादत से
समूचे देश में देशभक्ति की लहर उमड़ पड़ी थी। उनके साहसिक योगदान को अमर करने के लिए गीत रचे
गए और उनका बलिदान लोकगीतों के रूप में मुखरित हुआ।