कर्नाटक में विधानसभा चुनाव के समय प्रचार के लिए मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने तब अपने सोशल मीडिया पेज पर ‘फ्री बिजली, फ्री राशन, चुनिए कांग्रेस का शासन’ का टैग लाइन पोस्ट किया था। कर्नाटक चुनाव में कांग्रेस ने यह फ्री का पासा फेंका था। कर्नाटक में जीत से उत्साहित कांग्रेस टिकट देने से लेकर जनता को फ्री-बी योजनाओं की गारंटी देने तक उसी फार्मूले को राजस्थान , मध्यप्रदेश व छत्तीसगढ़ में भी लागू करने की तैयारी में है। हाल ही में कांग्रेस नेता प्रियंका गांधी ने मध्य प्रदेश में पार्टी का चुनाव अभियान शुरू करते हुए कर्नाटक की तरह ही फ्री बिजली, सस्ते गैस सिलिंडर के साथ ही ओल्ड पेंशन स्कीम का वादा भी दोहरा दिया। राजस्थान में पहले ही गहलोत सरकार महंगाई राहत कैंप के जरिए इसकी शुरुआत कर चुकी है। मध्य प्रदेश में पार्टी का चुनाव अभियान शुरू करते हुए सबसे पहले कांग्रेस नेता प्रियंका गांधी ने कर्नाटक की तरह ही फ्री बिजली, सस्ते गैस सिलिंडर के साथ ही ओल्ड पेंशन स्कीम का वादा भी दोहरा दिया। राजस्थान में पहले ही गहलोत सरकार महंगाई राहत कैंप के जरिए इसकी शुरुआत कर चुकी है।
माना जा रहा है कि ये राजनीतिक दलों की एक सोची-समझी रणनीति का हिस्सा है। जिस तरह से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री बनने के बाद तकरीबन एक नया वोट बैंक कायम कर दिया जिसको हम लाभार्थी कहते हैं। ऐसे लोग जिनको सरकारी स्कीमों का व्यापक रूप से लाभ हो रहा है। और उससे भाजपा को कई राज्यों में और 2019 के लोकसभा चुनाव में मदद मिली। कांग्रेस को पहले समझ में नहीं आ रहा था कि भाजपा की काट कैसे करें। क्योंकि एक व्यक्ति विशेष के इर्द-गिर्द सारी राजनीति घूम रही थी। साथ ही धर्म और आस्था के मामलों में भी भाजपा की बढ़त थी। राष्ट्रवाद के मुद्दे पर भाजपा बहुत आगे थी। विदेश नीति और अर्थव्यवस्था के बारे में भी मोदी के बढ़-चढ़कर के दावे थे। धीरे-धीरे कांग्रेस को समझ में आ गया है कि उसको कैसे हराया जा सकता है या कैसे उसे टक्कर दी जा सकती है। उसी संदर्भ में कांग्रेस ने सबसे पहले ये काम किया है कि ओल्ड पेंशन स्कीम का वादा किया है।
आप जानते हैं कि सरकार कर्मचारियों को वर्ष 2003 में एक बदलाव आया था। और वह बदलाव दिलचस्प रूप से यूपीए के समय में ही आया था। चिदंबरम वित्त मंत्री थे और उन्होंने इस तरह का बदलाव किया था। लेकिन उन्होंने साथ-साथ कांग्रेस की यह डिमांड थी कि सरकार के ऊपर खर्चा कम किया जाए, उसी पर कांग्रेस पलट गई है और अब कांग्रेस कहती है कि पुरानी पेंशन मिलनी चाहिए। इसी तरह से बिजली का वादा, कर्ज माफी जो पांच गारंटी है, और गैस सिलिंडर का मामला भी राजनीतिक रूप से संवेदनशील हो गया है। क्योंकि मोदी सरकार ने उज्ज्वला स्कीम के तहत सिलिंडर तो दिया लेकिन वह सिलिंडर 1000 रुपये, 1100 रुपये का हो गया है। इसको लेकर कांग्रेस कॉम्पिटिटीव पॉपुलिज्म में आ गई है। बढ़-चढ़कर दावे करती है और जनता को कहीं न कहीं लगने लगा है कि अगर तमिलनाडु में लोगों को फायदा हो सकता है, आंध्र में फायदा हो सकता है, तो ऐसे राज्यों में जहां इस तरह की लाभार्थी योजनाओं का बहुत ज्यादा अमल नहीं रहा, वहां इसका इच्छे ढंग से प्रयोग किया जा रहा है। जहां-जहां कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व मजबूत है, जैसे हिमाचल में था, कर्नाटक में था, जहां उनके पास संगठन मजबूत था, मुद्दे थे और जहां एंटी इंकंबेंसी खासकर भाजपा का शासन जैसे कर्नाटक और मध्य प्रदेश में इस मामले में समानता है। तो वहां पर उस सरकार को घेरने में आसानी से तैयार हो गई है। उसके साथ जुड़ा हुआ अर्थव्यवस्था का प्रश्न है। वो एक व्यापक प्रश्न है। उसके बारे में राजनितिक दल ज्यादा सजग नजर नहीं आते है।
माना जा रहा है कि किसी भी राज्य में किसी भी राजनीतिक दल की सरकार हो, कार्यकाल के अंतिम वर्ष में वो इस तरह की योजनाओं की झड़ी लगाती है और बहुत सारी बातें कहती है। उसका अमूमन उतना फायदा नहीं होता। प्रश्न ये उठता है, जैसे मध्य प्रदेश के संदर्भ में शिवराज सिंह चौहान 16-17 साल से राज्य के मुख्यमंत्री हैं। इस कार्यकाल में भी वो मार्च 2020 से मुख्यमंत्री थे। प्रश्न ये उठता है कि उन्होंने उस समय ये क्यों नहीं किया। और इस समय क्यों महिलाओं को ऐसे लाभ नहीं मिल रहे थे। दूसरी बात ये है कि जो नौकरशाही है, उसमें क्या किया कि बहुत सारे लोगों को उससे वंचित कर दिया, जिन लोगों को पहले विधवा पेंशन या दूसरी कोई पेंशन मिल रही है महिलाओं को, तो एक पेंशन मिल रही है। अब लोगों को उसमें थोड़ा खट्टापन महसूस हो रहा है। उन्हें लगता है कि वो अगर उन्हें 500 रुपये मिल रहे हैं तो 1000 रुपये से वंचित हो जाएंगे। 1000 रुपये लेंगे तो 500 रुपये से वंचित हो जाएंगे।
विपक्ष का जो नारा होता है, वो बड़ा सधा हुआ होता है। और उसमें उन्हें लगता है कि ये पूरा हमें मिलेगा और उसमें हमारे साथ कोई ज्यादती नहीं होगी और पांच साल मिलेगा। तो इस चीज को लेकर विपक्ष को हमेशा फायदा नजर आता है। ये दूसरे राज्यों में हुआ और मध्य प्रदेश उसका कोई अपवाद नहीं है। कांग्रेस की सरकार राजस्थान में है और यही नुकसान हो रहा है। जो राहत स्कीम वगैरह की बात जो अशोक गहलोत कह रहे हैं लेकिन उससे भी उतना ज्यादा फायदा जमीन पर नहीं हो रहा है। क्योंकि यही प्रश्न उठाया जाता है कि पिछले साढ़े चार साल में अशोक गहलोत क्या कर रहे थे। और व्यवस्था में ऐसी सुविधाएं क्यों नहीं मिलीं। जो सारी की सारी चीजें रूटीन में मिलनी चाहिए।
ये जो ओल्ड पेंशन स्कीम का मामला है, वो तो कांग्रेस का अपना एक यूएसपी है, उनका अपना हथियार है। केंद्र में भाजपा की सरकार है, और मोदी सरकार इस चीज के लिए बिलकुल तैयार नहीं है कि वो ओल्ड पेंशन स्कीम को वापस लाए। अगर वो ओल्ड पेंशन स्कीम को वापस लाती है तो पूरी तरह अर्थव्यवस्था चरमरा जाएगी। कांग्रेस के लिए यह सब कहना आसान है। हर राज्य की अर्थव्यवस्था बहुत बुरी स्थिति में है। खासतौर से जीएसटी और कई बड़ी वजहें भी हैं इसके लिए। मध्य प्रदेश के बारे कहा जा सकता है कि उसके हर नागरिक के ऊपर इस समय 38 हजार रुपये का कर्ज है।
मध्य प्रदेश सरकार आर्थिक रूप से दिवालिया होने के बावजूद वो 1000 रुपये हर महीने देने की घोषणा कर सकती है तो कमलनाथ को लगता है कि वो क्यों नहीं 1500 रुपये दे सकते हैं। वोटर बड़ा समझदार होता है। इस तरह की जो प्रतिस्पर्धा होती है, तो वो देखता है कि उसको फायदा कितना हो रहा है और दूसरा, क्या वो राजनीतिक दल सत्ता में आ रहा है। अगर एंटी इंकंबेंसी फैक्टर होता है, राज्य के नेतृत्व की बात की। अगर ये ठीकठाक हो, तो सत्ता परिवर्तन बड़ी आसानी से हो जाता है। मध्य प्रदेश में भी पिछली बार 2018 में सत्ता परिवर्तन हुआ था। राजस्थान में हुआ और वो पांच साल रहे। इन सब राज्यों में लगता है कि सत्ता परिवर्तन की सुगबुगाहट है। अर्थशास्त्रियों का मानना है कि चुनाव जीतने के फार्मूले को अजमाने की आगे और बाढ़ आ सकती है। यह देश की आर्थिक स्थिति के लिए शुभ संकेत नहीं। भारतीय रिजर्व बैंक पूर्व में भी कई राज्यों को अनावश्यक खर्चों के लिए चेता चुका है। ऐसे में क्या यह नहीं सोचा जाना चाहिए कि चुनावी घोषणापत्रों को व्यावहारिक बनाने की दिशा में मंथन शुरू किया जाए। चूंकि रेवड़ियां बांटने में कोई भी दल किसी से पीछे नहीं है तो इसमें कोई सर्वमान्य हल आसानी से निकलता हुआ नहीं दिखता। इस मामले में चुनाव आयोग भी दलों के लिए कोई बाध्यकारी प्रविधान नहीं बना सकता।
वहीं उच्चतम न्यायालय ने भी 2013 में कह दिया कि वह इसमें कोई व्यवस्था नहीं बना सकता और उसने गेंद राजनीतिक दलों के पाले में डाल दी, लेकिन दलों के स्तर पर इस विषय में कोई गंभीरता नहीं दिखती। कांग्रेस द्वारा पुरानी पेंशन योजना के जिन्न को बोतल से बाहर निकालना इसका एक बड़ा उदाहरण है, जिसकी आलोचना कांग्रेस की ओर झुकाव रखने वाले बुद्धिजीवी भी कर चुके हैं। क्या मुफ्त उपहारों की पेशकश ही चुनावों में निर्णायक सिद्ध होकर किसी दल को सत्ता दिलाने में सहायक होती है। कर्नाटक के हालिया उदाहरण को ही देखें तो वहां केवल कांग्रेस ने ही नहीं, बल्कि भाजपा और जनता दल-सेक्युलर ने भी कमोबेश इसी प्रकार के वादे किए थे। स्पष्ट है कि चुनाव में केवल यही घोषणाएं ही मायने नहीं रखतीं। यदि जनता में इसे लेकर जागरूकता का प्रसार होगा तो संभव है कि राजनीतिक दलों को भी अपनी रणनीति बदलनी पड़ेगी। भले ही इस मामले में चुनाव आयोग और उच्चतम न्यायालय ने अपने लिए लक्ष्मण रेखा खींच दी हो, लेकिन कहीं न कहीं जनता, नागरिक समाज और राजनीतिक दलों सहित समूचे तंत्र से जुड़े अंशभागियों को इस मुद्दे का कोई कारगर हल निकालना होगा। जनता को राजनीतिक दलों से यह प्रश्न करना चाहिए कि इन वादों को पूरा करने के लिए वित्तीय संसाधन कहां से आएंगे, क्योंकि इसमें केवल वर्तमान की राजनीति का ही नहीं, बल्कि भविष्य के आर्थिक संतुलन का भी सवाल है। तब शायद दलों को इन वादों के साथ ही उन्हें पूरा करने की कार्ययोजना भी प्रस्तुत करनी पड़े और फिर जनता उसी आधार पर निर्णय करे।
स्पष्ट है कि यदि रेवड़ी संस्कृति पर विराम लगाना है तो राजनीतिक दलों को अपना सुविधावादी दृष्टिकोण त्यागना होगा। एक राजनीतिक दल को मुफ्त उपहारों से जुड़ी अपनी योजना तो कल्याणकारी लगती है, लेकिन दूसरे दल की योजना रेवड़ी नजर आती है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी खुद एक ओर रेवड़ी संस्कृति से मुक्ति की बात करते हैं, लेकिन ऐसी पेशकशों के मामले में उनकी पार्टी भाजपा भी पीछे नहीं रहती। नि:संदेह, रेवड़ी संस्कृति पर अंकुश लगाना समय की मांग है, लेकिन इसके लिए सभी को जिम्मेदारी का भाव और संवेदनशीलता का परिचय देना होगा। अन्यथा भारत को विकसित देश बनाने का जो स्वप्न हम देखते हैं, वह पूरा होना कठिन होता जाएगा।
-अशोक भाटिया