75 साल से चल रहा है गरीबी हटाओ का नारा क्या केवल चुनावी शगूफा बन जाता है !

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लोकसभा चुनाव 2024 के ल‍िए स‍ियासी माहौल गरमाने लगा है। आजादी के 75 वर्ष बाद भी देश में गरीबी चुनाव का एक प्रमुख मुद्दा बना हुआ है। 1952 में हुए पहले आम चुनाव में गरीबी मुद्दा था। 1971 के लोकसभा चुनाव में तो इंदिरा गांधी ने ‘गरीबी हटाओ’ का नारा ही दे दिया था। माना जाता है कि यह नारा उनके प्रधान सचिव पीएन हक्सर के दिमाग की उपज थी।अब साल 2024 में जब भारत 18वीं लोकसभा के चुनाव की तैयारी में है, तब भी चुनाव में गरीबी एक मुद्दा है। अंतर यह है क‍ि सत्‍ताधारी भाजपा इस दावे के साथ इसे मुद्दा बना रही है क‍ि उसके शासन काल में 25 करोड़ से ज्‍यादा लोग गरीबी से बाहर न‍िकले। व‍िपक्ष तरह-तरह के आंकड़े देकर इस दावे की हवा न‍िकाल रहा है।

मध्य प्रदेश में लोकसभा चुनाव 2024 के लिए भाजपा का प्रचार करने पहुंचे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राहुल गांधी और इंडी गठबंधन पर जमकर निशाना साधा था । पीएम मोदी ने राहुल पर तंज करते हुए कहा कि कांग्रेस के शहजादे ने घोषणा की है कि एक झटके में देश की गरीबी हटा दूंगा। आखिर ये शाही जादूगर इतने वर्षों तक कहां छिपा था?पीएम मोदी ने कहा कि 50 साल पहले इनकी दादी ने देश से गरीबी हटाने की घोषणा की थी। 2014 से पहले 10 साल तक इन्होंने रिमोट से सरकार चलाई। अब इनको एक झटके वाला मंत्र मिल गया है। ऐसे दावे करते हैं और हंसी के पात्र बन जाते हैं।

दरअसल साल की शुरुआत में नीति आयोग ने दावा किया था कि नौ साल में 25 करोड़ लोग गरीबी से निकल चुके हैं। पिछले दिनों नीति आयोग के CEO ने HCES के आधार पर दावा किया कि भारत की कुल आबादी में गरीबों का अनुपात पांच फीसद से अधिक नहीं है। इन्‍हीं आंकड़ों का हवाला देकर सरकार गरीबी कम होने के दावे कर रही है। लेक‍िन, व‍िशेषज्ञ इन आंकड़ों तक पहुंचने के रास्‍ते पर सवाल उठा रहे हैं।

जिस सर्वे के आधार पर नीति आयोग के सीईओ ने कहा कि भारत की कुल आबादी में गरीबों का अनुपात पांच फीसद से अधिक नहीं है, उस सर्वे का मकसद यह पता लगाना होता है कि हर माह लोग कितना खर्च कर रहे हैं। अंग्रेजी में से Monthly Per Capita Expenditure या (MPCE) कहते हैं।

अगस्त 2022 से जुलाई 2023 के बीच आयोजित इस HCES में 8,723 गांवों और 6,115 शहरी क्षेत्रों के 2,61,745 घरों (ग्रामीण क्षेत्रों से 60 फीसद और शहरी क्षेत्रों से 40 फीसद) को शामिल किया गया था।सर्वे से प्राप्त आंकड़ों को चार भागों में बांटकर देखने से पता चलता है कि कुल आबादी के 50 प्रतिशत का प्रति व्यक्ति खर्च 3,094 रुपये (ग्रामीण) और 4,963 रुपये (शहरी) से अधिक नहीं है। सबसे गरीब पांच प्रतिशत लोग तो 1,373 रुपये (ग्रामीण) और 2,001 रुपये (शहरी) प्रति माह में गुजारा कर रहे हैं। दिन के हिसाब से बांट दें तो यह 45 रुपये (ग्रामीण) और 66 रुपये (शहरी) प्रति दिन हो जाएगा।

हार्वर्ड बिजनेस स्कूल से पढ़े और मनमोहन सिंह की सरकार में वित्त मंत्री रहे पी. चिदंबरम नीति आयोग के आंकड़ों को पेश करने के तरीके को दुरुस्त नहीं मनाते। चिदंबरम पांच फीसद वाले दावे पर सवाल उठाते हुए लिखते हैं, “अगर यह दावा सच है तो सरकार 80 करोड़ लोगों को प्रति व्यक्ति प्रति माह पांच किलो मुफ्त अनाज क्यों बांटती है?”

च‍िदंबरम का सवाल यह भी है क‍ि क्या नीति आयोग ने इस बात पर कभी गंभीरता से विमर्श किया कि जो लोग ग्रामीण क्षेत्रों में महीने का (खाद्य और गैर-खाद्य पर) लगभग 2,112 रुपए या प्रतिदिन 70 रुपए खर्च करते हैं, वे गरीब नहीं हैं? या शहरी इलाकों में जिन लोगों का मासिक खर्च 3,157 रुपए या प्रतिदिन 100 रुपए है, वे गरीब नहीं हैं?

अर्थशास्त्री स्वामीनाथन एस अंकलेसरिया अय्यर भी सर्वे करने के तरीकों को सही नहीं मानते। वह टाइम्स ऑफ इंडिया में लिखते हैं कि भारत संदिग्ध डेटा के मामले में एक संपन्न देश है।अय्यर इसका बेहतरीन उदाहरण HCES के डेटा को बताते हैं। वह लिखते हैं कि सर्वे का डेटा और उसका विश्लेषण दोनों त्रुटिपूर्ण है। अय्यर अर्थशास्त्री सुरजीत भल्ला के हवाले से बताते हैं कि 2011-12 से अब तक मात्र दो प्रतिशत लोग गरीबी से बाहर निकले हैं। उनके मुताबिक, ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबी 28.7 से घटकर 27 और शहरी क्षेत्रों में 36.7 से घटकर 31.9 हो गयी है। भल्ला प्रति दिन 70 रुपये कम में जीवन यापन करने वालों को गरीब मानते हैं।

अय्यर मानते हैं कि HCES का डेटा कलेक्ट करने का तरीका ही गलत है क्योंकि सर्वे के दौरान लोगों से यह सवाल तो किया जाता है कि उन्होंने अपने खाने, शिक्षा और स्वास्थ्य पर कितना खर्च किया, लेकिन अन्य खर्चों जैसे यात्रा आदि को लेकर सवाल नहीं किया जाता है। साथ ही कई बार लोग सही जानकारी भी नहीं देते। ऐसे में HCES के डेटा से गरीबी या अमीरी का सही तस्वीर नहीं मिल पाती।

इस साल की शुरुआत में नीति आयोग ने एक रिपोर्ट जारी कर बताया था कि पिछले नौ साल में भारत के 24.8 करोड़ गरीबी (Multidimensional Poverty) से बाहर निकल गए हैं। 2013-14 में भारत में गरीबी दर 29.17 थी, जो 2022-23 में घटकर 11.28 प्रतिशत हो गई। यानी 17.89 प्रतिशत लोग गरीबी से निकले हैं। गरीबी से निकलने वाले लोगों के आकलन के लिए नीति आयोग ने बेहतर शिक्षा, स्वास्थ्य और लाइफस्टाइल जैसे मानदंडों के आधार बनाया था।

यह समझ लेना आवश्यक है कि गरीबी मापने के लिए आय के डेटा या व्यय के डेटा का इस्तेमाल किया जाता है। आसान भाषा में कौन कितना गरीब है यह पता लगाने के लिए व्यक्ति की कमाई या उसके खर्च करने की क्षमता का आकलन किया जाता है।

हंगर वॉच नेशनल सर्वे के अनुसार दिसंबर 2021 से जनवरी 2022 के बीच लोगों की आय में गिरावट आई है। समाज के आर्थिक रूप से कमज़ोर और हाशिए के वर्गों में खाने-पीने तक का संकट गहराया है।हंगर वॉच के सर्वे में 80 प्रतिशत लोगों ने फूड इनसिक्योरिटी की समस्या को स्वीकार किया है। 25 प्रतिशत ने भोजन में कटौती करने और भूखे पेट सोने की बात कबूल की है।

इसके अलावा, प्यू रिसर्च सेंटर की एक रिपोर्ट इस बात पर प्रकाश डालती है कि महामारी से आई आर्थिक मंदी के कारण वर्ष 2022 में भारत में लगभग 75 मिलियन अधिक लोग गरीबी के दलदल में फंस गए। इस अध्ययन में गरीबों को उन लोगों के रूप में परिभाषित किया गया है जो प्रतिदिन 2 डॉलर (165 रुपये) या उससे कम पर जीवन यापन करते हैं।

मौजूदा एनडीए सरकार गरीबी दूर करने के नाम पर कई योजनाएं चल रही है और आगामी चुनाव में उनके नाम वोट मांगने की भी तैयारी है, जिसकी झलक विज्ञापनों और भाषणों में दिखने लगी है।गरीबों को ध्यान में रखकर चलायी जाने वाली केंद्र की मुख्य योजनाओं में प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना, प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना, प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना, जल जीवन मिशन और प्रधानमंत्री जन धन योजना को गिना जा सकता है।

स्‍वास्‍थ्‍य मंत्रालय द्वारा कराए जाने वाले राष्‍ट्रीय स्‍वास्‍थ्‍य सर्वेक्षण (NFHS-5 – 2019-21) के डेटा पर आधार‍ित एक अध्‍ययन में अंदाजा लगाया गया है कि भारत में 19.3 प्रतिशत बच्‍चे ऐसे हैं, जिन्‍हें पिछले 24 घंटों में न तो ठोस आहार ही दिया गया है और न तरल पदार्थ ही दिया गया है। भारत से ज्‍यादा केवल अफ्रीकी देश गुयाना में ऐसे बच्‍चों (Zero food children) की संख्‍या 21.8 प्रतिशत और माली में 20.5 प्रतिशत है। बांग्‍लादेश में 5.6 प्रतिशत, पाकिस्‍तान में 9.2 प्रतिशत, कांगो में 7.4 प्रतिशत, नाइजीरिया में 8.8 प्रतिशत और इथोपिया में 14.8 प्रतिशत जीरो फूड च‍िल्‍ड्रेन पाए गए।

हालांक‍ि, भारत में स्‍वास्‍थ्‍य विशेषज्ञों का कहना है कि ये आंकड़े भोजन की कमी के चलते नहीं हैं, बल्‍क‍ि माताओं द्वारा बच्‍चों को दूध पिलाने या खाना देने में असमर्थता के चलते आए हो सकते हैं। जिन बच्‍चों को पिछले 24 घंटों में दूध-पानी या कोई अन्‍न नहीं दिया गया, उन्‍हें जीरो फूड च‍िल्‍ड्रेन माना गया। यह सर्वे 2010 से 2021 के बीच अलग-अलग समय पर 92 देशों में 6 से 24 महीने के बच्‍चों के बीच क‍िया गया।IMF के मुताबिक, भारत में 2014 से 2023 के बीच प्रत‍ि व्‍यक्‍ति‍ आय में 67 फीसदी बढ़ोतरी हुई, जबक‍ि 2004 से 2014 के बीच 145 प्रत‍िशत बढ़ी थी। एक अंतरराष्‍ट्रीय र‍िपोर्ट के मुताब‍िक आर्थ‍िक समानता के मामले में भी भारत की स्‍थ‍ित‍ि अच्छी नहीं है।

-अशोक भाटिया

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