क्या नीतीश बाबु की विपक्षी एकता का ढोल फट गया है जो उसकी आवाज नहीं आ रही हैं ?

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2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा की धमाकेदार जीत के बाद पहले नेता जिसने भाजपा को अपने जातीय गठबंधन के समीकरण से बिहार विधानसभा चुनाव में मात दी थी, वो पिछले एक वर्ष से राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा विरोधी गठबंधन बनाने का प्रयास कर रहे हैं। पिछले दिनों कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं के साथ मुलाक़ात के बाद नीतीश कुमार ने जो भाजपा विरोधी गठबंधन बनाने का जो प्रारूप साझा किया वो अपने आप में एक पराजित प्रयास है।उन्होंने एक साल में जितने भी ढोल बजा – बजा कर विरोधी गठबंधन का प्रयास किया उस ढोल की लगता है अब हवा निकल गई हैं या वह ढोल ही फट गया हैं ।क्योकि इसे लेकर 12 जून को पटना में विपक्षी एकता की बैठक भी बुलाई गई थी, जो टल गई। कहीं न कहीं विपक्षी एकता की बैठक में शामिल होने को लेकर भाजपा विरोधी दलों के बीच सस्पेंस बना हुआ है।इसे लेकर महागठबंधन के बीच लगातार मंथन भी चल रहा है। ऐसे में यह देखना दिलचस्प हो जाता है कि बैठक टलने के बाद सभी विरोधी दलों को एक मंच पर लाना मुख्यमंत्री नीतीश के लिए कितना मुश्किल है।

बता दें कि राहुल गांधी विदेश में हैं। कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे भी अगले विधानसभा चुनाव की तैयारियों में व्यस्त हैं। ऐसे में अब बस इंतजार है तो बैठक की अगली तारीख का …. बताया जा रहा है कि कांग्रेस के अंदर भी इस बैठक को लेकर मंथन चल रहा है। पार्टी कहीं न कहीं ये सोच कर चल रही है कि नीतीश कुमार पर भरोसा करना ठीक नहीं होगा…. दरअसल, नीतीश कुमार बार-बार अपना पलरा बदल लेते हैं। वे कभी एन डी ए तो कभी महागठबंधन के बीच झूलते रहते हैं। कांग्रेस को इसी बात का डर है।पार्टी को लगता है कि अगर अगले लोकसभा चुनाव में जदयू मजबूत स्थिति में होती है और नीतीश कुमार को लगेगा कि उन्हें बीजेपी या राजद के साथ रहने में फायदा है तो वह कांग्रेस का साथ छोड़ भी सकते हैं।बताया जाता है कि नीतीश कुमार भाजपा और आरजेडी के बीच इतनी बार घूम चुके हैं कि किसी भी पार्टी के लिए उन पर भरोसा करना मुश्किल होगा। वे कब किधर जाएंगे, ये बात सिर्फ मुख्यमंत्री नीतीश ही जानते हैं।

एक्पसर्ट के मुताबिक, कांग्रेस पार्टी को इस बात का भी डर है कि विपक्षी एकता की बैठक हो जाए। लोकसभा जीत भी जाएं, लेकिन जब सरकार बनाने की नौबत आए तो कहीं नीतीश कुमार अलग राह न पकड़ लें। इस वजह से कांग्रेस आशंकित है।दूसरी बात यह है कि कांग्रेस में अपनी ही पार्टी के अंदर कई तरह के मतभेद है। पार्टी में अंतर्विरोध और संदेह है कि विपक्षी एकता के मद्देनजर भाजपा विरोधी दलों के साथ गठबंधन बनाना कितना फायदेमंद होगा और कितना नुकसानदेह है।

बताया जाता है कि कांग्रेस की आज जो स्थिति है, वह क्षेत्रीय दलों के कारण ही हुई है। क्षेत्रीय दलों ने ही अपने-अपने प्रदेश में उसे सत्ता से बेदखल कर दिया है। कांग्रेस अभी सिर्फ 4 राज्यों में ही सिमटी हुई है। एक समय था जब पूरे देश में उसका राज था।कई राज्यों में तो वहां की क्षेत्रीय दलों से अब कांग्रेस की बात तक नहीं होती। इसका सबसे पहला उदाहरण राजधानी दिल्ली है, जहां आम आदमी पार्टी की सरकार है। दिल्ली में मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल से कांग्रेस पार्टी के बीच राजनीतिक लड़ाई किसी से छिपी नहीं है।इसी कड़ी में अगला नाम तेलंगाना के मुख्यमंत्री केसीआर का भी आता है। केसीआर हमेशा से कांग्रेस के खिलाफ बोलते रहे हैं। वहीं, आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री जगन मोहन रेड्डी भी कांग्रेस के विरोध में हैं।नीतीश कुमार से कांग्रेस को भीतर से डर भी हैं ।

इधर बात करें बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की तो उन्होंने ऐसे समय में कांग्रेस के एक विधायक को अपनी पार्टी में मिलाया है, जब पूरे देश में विपक्षी एकजुटता की चर्चा है। कांग्रेस भीतर से डरी हुई है कि जिन विपक्षी दलों ने हमको सत्ता से बेदखल कर दिया है, उनके साथ जाना फायदे का सौदा होगा या घाटे का। पार्टी इसे लेकर भी काफी असमंजस की स्थिति में है। इसे लेकर पार्टी में मंथन का दौर चल रहा है। इस मामले में नीतीश कुमार ने बहुत बड़ा रिस्क लिया है। यह सफलता तभी मिलेगी, जब कांग्रेस पूरे मन से नीतीश के साथ हो। कांग्रेस ये समझने की कोशिश कर रही है कि बिहार के बाहर नीतीश कुमार का क्या जनाधार है। पार्टी को मालूम है कि मुख्यमंत्री नीतीश कांग्रेस के भरोसे नैय्या पार लगाना चाहते हैं।

खैर अब विपक्षी दलों की 12 जून को होने वाली बैठक टाल दी गई है। बैठक की नई तारीख तय तो नहीं हुई है, लेकिन संभवतः 23 जून को बैठक हो सकती है। बैठक टलने की वजह राहुल गांधी और मल्लिकार्जुन खरगे की अनुपलब्धता बताई गई है। चूंकि बैठक बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने बुलाई थी, इसलिए आधिकारिक तौर पर कोई जानकारी उन्हीं की ओर से आएगी, लेकिन कांग्रेस सूत्रों ने 12 जून की बैठक कैंसल होने की पुष्ट की है। राजनीतिक विश्लेषक बैठक टलने के पीछे की वजह दूसरी मान रहे हैं।उनका मानना है कि यह विपक्षी दलों की राष्ट्रीय स्तर की यह बैठक थी। देश भर से विपक्षी नेताओं का जमावड़ा होना था। जाहिर है कि नीतीश ने यह तारीख अपने मन से तो तय नहीं की होगी। उन्होंने तारीख को लेकर कांग्रेस और दूसरे विपक्षी दलों से जरूर विमर्श किया होगा। कांग्रेस के दोनों बड़े नेता उस दिन उपलब्ध नहीं रहेंगे, यह स्थिति कांग्रेस में अचानक पैदा नहीं हुई होगी। राहुल गांधी का अमेरिका जाना बैठक की तारीख तय होने से पहले ही निश्चित हो गया था। खरगे को भी अपनी व्यस्तता का भान जरूर रहा होगा। अगर ऐसा था तो बैठक की तारीख तय करनी ही नहीं चाहिए थी।

बैठक टलने की दूसरी वजह जो समझ में आती है कि कांग्रेस पर क्षेत्रीय दल जिस तरह 200 से 250 सीटों पर लड़ने का दबाव बना रहे हैं, वह कांग्रेस को पसंद नहीं है। कांग्रेस को भी लगा होगा कि विपक्षी दलों की बैठक में जाकर कुछ हासिल होने वाला नहीं है, बल्कि वही राग क्षेत्रीय दल बैठक में भी अलापेंगे, जो बातें संकेतों में अभी कह रहे हैं। विपक्ष की शर्त कांग्रेस एकता के नाम पर मान ले तो उसे अधिकतम 250 सीटों पर चुनाव लड़ना होगा। कांग्रेस ने 2009 के लोकसभा चुनाव को आधार बनाने का सैद्धांतिक निर्णय लिया है। तब कांग्रेस 440 सीटों पर लड़ कर 206 सीटें जीती थी।

पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री और तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) ममता बनर्जी ने यह शर्त रख दी थी कि जो दल जिस राज्य में मजबूत हैं, कांग्रेस को वहां उनकी मर्जी पर सीटें दी जाएंगी। उन्होंने अपना पक्ष मजबूत करने के लिए दिल्ली, पंजाब, बिहार जैसे राज्यों के नाम भी गिनाए थे। ममता कांग्रेस को बिदकाने का कोई मौका नहीं छोड़ना चाहतीं। उत्तरप्रदेश में विधान परिषद के उपचुनाव में भी सपा नेता अखिलेश यादव और कांग्रेस की खींचतान सामने आई थी। मायावती की बहुजन समाज पार्टी और कांग्रेस ने विधान परिषद चुनाव का बहिष्कार किया तो सपा अकेले मैदान में डटी रही। हालांकि उसे इसका कोई फायदा नहीं मिला। सपा के उम्मीदवार हार गए और भाजपा ने जीत हासिल कर ली।

आम आदमी पार्टी के साथ कांग्रेस का लफड़ा तो अब जगजाहिर है। नीतीश से पहली बार की मुलाकात में आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल ने विपक्षी एकता में साथ रहने का भरोसा दिया। हफ्ते भर के अंदर आम आदमी पार्टी ने घोषणा कर दी कि वह किसी दल या गठबंधन के साथ लोकसभा का चुनाव नहीं लड़ेगी। पंजाब और दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सरकारें हैं। कई और राज्यों में उसने अपनी उपस्थिति दर्ज करा दी है। नतीजतन उसे राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा मिला हुआ है। आप का यह अंदाज भी चौंकाने वाला था। हालांकि इस बीच केंद्र ने सेवा अध्यादेश लाकर आप को परेशानी में डाल दिया। अब उसे खुद विपक्ष के साथ की जरूरत महसूस होने लगी। केजरीवाल घूम-घूम कर विपक्षी दलों से मिलने लगे। नीतीश से दिल्ली में ही उन्होंने अध्यादेश पर साथ का वचन ले लिया था। बाद में वे बंगाल और झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन से भी इसी मकसद से मिले। शरद पवार और उद्धव ठाकरे का दरवाजा भी खटखटाया। सबने हां कह दी। कांग्रेस ही ऐसी पार्टी रही, जिसने केजरीवाल को मिलने का वक्त नहीं दिया। उल्टे पंजाब, दिल्ली और गोवा के अपने नेताओं के दबाव में खरगे ने आधिकारिक तौर पर घोषणा कर दी कि अध्यादेश पर कांग्रेस का साथ आप को नहीं मिलेगा।

दरअसल विपक्षी दलों की आपस में ही खींचतान, लोकसभा चुनाव में 200 से 250 सीटों पर लड़ने का कांग्रेस पर दबाव और सभी विपक्षी दलों का एक मंच पर नहीं आना, विपक्षी दलों की बैठक टलने के मुख्य कारण हैं। राहुल और खरगे को यह पता है कि विपक्ष में आज कांग्रेस सबसे ताकतवर है। राजस्थान, कर्नाटक, छत्तीसगढ़ और हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस की सरकारें हैं। बिहार, झारखंड और तमिलनाडु में कांग्रेस गठबंधन सरकारों का हिस्सा है। ऐसे में वह किसी दबाव में नहीं रहना चाहती है। शायद यही वजह रही हो कि कांग्रेस ने पहले बैठक में राहुल गांधी और खरगे के भाग न लेने की बात कही और अब उनके इंतजार में बैठक की तारीख टरका दी गई। नीतीश कुमार को भी अपनी फजीहत का एहसास जरूर हुआ होगा तभी तो आज कल उनका विपक्षी एकता का ढोल बजाना बंद है।

-अशोक भाटिया

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