केंद्रीय परिवहन और राजमार्ग मंत्री नितिन गडकरी का चुनावी खर्चे को लेकर यह बयान स्वागत
योग्य है की वे चुनाव में भ्रष्ट आचरण नहीं करेंगे, चाहे चुनाव जीते या हारे। उन्होंने कहा कि
मैंने इस बार लोकसभा के लिए तय कर लिया है कि पोस्टर और बैनर नहीं लगाऊंगा। चाय-पानी
नहीं करूंगा। वोट देना है दो, नहीं देना है तो मत दो। प्रमाणिक तौर पर सेवा करूंगा। कोई
माल-पानी नहीं मिलेगा, लक्ष्मी दर्शन नहीं। देसी-विदेशी नहीं मिलेगा। मैंने पैसा खाया नहीं है तो
तुमको भी खाने नहीं दूंगा। नितिन गडकरी नागपुर से भाजपा के लोकसभा सदस्य है और अपनी
बेबाकी के लिए जाने जाते है। गडकरी पर कोई आरोप भी नहीं है। वे अपना काम बिना ढोल
ढमाके के करते है। देश की साफ़ सुथरी राजमार्गीय सड़कें उनकी देन है।
यह हर भारतीय बहुत अच्छी तरह जानता और समझता है की चुनावों में राजनैतिक पार्टियां
और उम्मीदवार प्रचार प्रसार पर बेहताशा धन खर्च करते है। वोटरों को लुभाने के लिए साधन
सुविधा सुलभ करते है जिसमें काळा धन का जमकर उपयोग होता है। भारत दुनियां का सबसे
बड़ा लोकतान्त्रिक देश है। हमें अपने लोकतंत्र पर गर्व की अनुभूति होती है। मगर लोकतान्त्रिक
संस्थाओं के चुनावों ने हमारे इस गर्व को चूर चूर करके रख दिया है। इसका एक बड़ा कारण
इन चुनाव में काले धन के बेहताशा खर्च पर है। भारत चुनाव आयोग की लाख चेष्टाओं के बाद
भी चुनावों में बेहिसाबी धन के खर्चे पर अंकुश नहीं लगाया जा सका है। यह धन सफेद और
काला दोनों है। चुनाव सुधार की बातें हम एक अरसे से सुनते आये है मगर यह सुधार कागजों
से आगे नहीं बढ़ पाया है। चुनाव में काला धन खर्च कर जीतने वाला प्रत्याशी अपने धन की
उगाही में सदा सर्वदा जुटा रहता है। उसे अपने अगले चुनाव की चिंता सताए रहती है। भारत में
गैरकानूनी तरीके से कमाए गए काले धन को कई तरह से ठिकाने लगाया जाता है जिसमें
जमीन जायदाद का कारोबार और चुनाव प्रचार जैसे तरीके भी शामिल हैं। चुनाव में पैसा और
दारू के अनुचित प्रयोग के साथ गरीब मतदाताओं के वोट खरीदना आम बात हो गयी है।
भारत की 60 फीसदी आबादी रोजाना 210 रुपये से कम की आमदनी में अपना गुजारा करती
है। भारत आर्थिक तौर पर एक विकासशील देश है, लेकिन चुनावी खर्च के मामले में वह
अमेरिका और ब्रिटेन जैसे कई विकसित देशों को पीछे छोड़ने जा रहा है। एक अध्ययन के अनुसार
विभिन्न राजनीतिक दलों द्वारा सोशल मीडिया पर इस बार 5000 करोड़ रुपए तक खर्च किए जा सकते हैं
। आजकल के चुनावों में बेहिसाब अनैतिक खर्च का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि 1952 में
हुए पहले आम चुनाव का खर्च 10 करोड़ से भी कम आया था, यानी प्रति मतदाता करीब 60 पैसे का खर्च।
हालाँकि उस समय यह रकम मामूली नहीं थी, लेकिन गैर-सरकारी आँकड़ों के मुताबिक आज विभिन्न दलों
की ओर से 50-55 करोड़ रुपए मात्र एक संसदीय सीट में बहा दिए जाते हैं।
शुरु के कुछ आम चुनावों तक दिग्गज उम्मीदवार भी बैलगाड़ियों, साइकलों, ट्रैक्टरों पर प्रचार करते थे।
उम्मीदवार की आर्थिक मदद खुद कार्यकर्ता किया करते थे। लेकिन आज के नेता हेलिकॉप्टरों या निजी
विमानों से सीधे रैलियों में उतरते हैं और करोड़ों रुपए खर्च करके लाखों लोगों की भीड़ जुटाते हैं। उस समय
पैदल यात्रा का भी अपना आकर्षण था। समाजवादी और साम्यवादी नेता साईकिल और बैलगाड़ियों पर
संपर्क करते थे। समाजवादी नेता डॉ राम मनोहर लोहिया को अपने उम्मीदवारों का प्रचार बैलगाड़ी पर करते
देखा जा सकता था। सत्तारूढ़ पार्टी के नेताओं के पास अवश्य कार देखी जा सकती थी। नेता अपनी गांठ से
खाना खाते थे अथवा किसी कार्यकर्ता के यहाँ विश्राम कर वहीँ भोजन करते थे। आज किसी बड़े होटल में
रुकते है और निजी विमान से प्रचार करते है।
चुनाव नियम के मुताबिक एक उम्मीदवार लोकसभा चुनाव में 70 लाख से 90 लाख रुपए तक खर्च कर
सकता है। विधानसभा चुनाव के लिए यह सीमा 28 लाख से 40 लाख रुपए के बीच है। यह खर्च उस राज्य पर
भी निर्भर करता है जहाँ से उम्मीदवार चुनाव लड़ रहा है। फिर भी इनका घोषित खर्च वास्तविक खर्च का 10
प्रतिशत भी नहीं बैठता।
बाल मुकुन्द ओझा