कॉप-30 सम्मेलन और विकसित देशों की जिम्मेदारियां

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12 दिसंबर 2015 को फ्रांस के पेरिस शहर में आयोजित ‘कॉप-21’ यानी संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए एक ऐतिहासिक अंतरराष्ट्रीय संधि की गई थी, तथा जिसे विश्व के 195 देशों ने अपनाया था, और इस समझौते को ही पेरिस जलवायु समझौता, 2015 के नाम से जाना जाता है। पाठकों को बताता चलूं कि इस जलवायु समझौते के अंतर्गत औद्योगिक युग से पहले की तुलना में वैश्विक तापमान वृद्धि को 2 डिग्री सेल्सियस से कम और प्रयास करके 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखने का लक्ष्य रखा गया था। इतना ही नहीं, इसके अलावा इसके तहत प्रत्येक देश को अपने-अपने स्तर पर ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन घटाने का स्वैच्छिक लक्ष्य तय करने और समय-समय पर उसे अपडेट किए जाने की भी बात कही गई थी। साथ ही,इसी समझौते के अंतर्गत वित्तीय सहयोग की भी बात कही गई थी कि विकसित देश, विकासशील देशों को जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए हर साल 100 अरब डॉलर की सहायता देंगे। न केवल वित्तीय सहयोग बल्कि अनुकूलन और तकनीकी सहयोग की भी बात कही गई थी कि गरीब देशों को नई स्वच्छ तकनीकें अपनाने, जलवायु आपदाओं से निपटने और हरित विकास में मदद दी जाएगी।जवाबदेही और पारदर्शिता भी इसके तहत तय की गई थी।मसलन,सभी देशों को अपने उत्सर्जन और प्रगति की रिपोर्ट संयुक्त राष्ट्र को नियमित रूप से देने की बात भी इस समझौते के अंतर्गत कहीं गई थी। बहरहाल, यदि हम यहां पर संक्षेप में कहें तो पेरिस समझौते का मकसद पूरी दुनिया को एकजुट करके ऐसा ढांचा बनाना था, जिससे धरती के तापमान को नियंत्रित रखा जा सके, पर्यावरणीय आपदाओं को कम किया जा सके और सतत विकास को बढ़ावा मिल सके। इस बार आयोजित किए जा रहे सम्मेलन का उद्देश्य जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए वैश्विक स्तर पर प्रतिबंधों को लागू करना है,लेकिन इस समझौते में जताई गई प्रतिबद्धताओं के अनुरूप प्रयास होते नजर नहीं आ रहे हैं। कहना ग़लत नहीं होगा कि आज विकासशील देश ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन कम करने की दिशा में प्रयास करना चाहते हैं, वे हरित ऊर्जा की ओर अग्रसर होना चाहते हैं, तथा धरती और पर्यावरण को अच्छा व सुंदर बनाने के लिए प्रतिबद्ध नजर आते हैं लेकिन यह भी एक कड़वा सच है कि आज वित्तीय और तकनीकी चुनौतियां उनकी राह में रोड़े अटका रही हैं। इसके बावजूद अच्छी बात यह है कि भारत और चीन जैसे देश पेरिस समझौते के लक्ष्यों को हासिल करने के लिए अपनी जिम्मेदारी निभाने की कोशिश कर रहे हैं। कहना ग़लत नहीं होगा कि भारत और चीन दोनों ने पेरिस समझौते के तहत अपने-अपने लक्ष्यों की दिशा में उल्लेखनीय प्रगति की है। जहां भारत अपने हरित ऊर्जा निवेश को तेजी से बढ़ा रहा है, वहीं चीन ने भी अक्षय ऊर्जा और इलेक्ट्रिक वाहनों में भारी निवेश किया है। यहां पाठकों को बताता चलूं कि भारत ने यह वादा किया था कि 2030 तक अपनी कुल ऊर्जा का 50% हिस्सा गैर-जीवाश्म स्रोतों (जैसे सौर, पवन, जल) से प्राप्त करेगा। इतना ही नहीं, भारत ने 2030 तक उत्सर्जन तीव्रता (जीडीपी प्रति इकाई उत्सर्जन) को 2005 के स्तर से 45% तक घटाने का लक्ष्य रखा था। क्या यह काबिले-तारीफ बात नहीं है कि भारत ने 2070 तक नेट-जीरो उत्सर्जन हासिल करने की घोषणा की है। वास्तव में यह हमें गौरवान्वित महसूस कराता है कि आज भारत दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा अक्षय ऊर्जा उत्पादक है और सौर ऊर्जा में भारत ने 2024 तक 70 जीडब्ल्यू से अधिक क्षमता हासिल कर ली है, जो एक बड़ी उपलब्धि मानी जाती है। वहीं दूसरी ओर यदि हम यहां पर चीन की बात करें तो चीन ने 2030 तक कार्बन उत्सर्जन को चरम पर पहुंचाने और 2060 तक नेट-जीरो लक्ष्य हासिल करने की घोषणा की है। इतना ही नहीं, चीन ने 2020 के बाद कोयले पर निर्भरता घटाने और हरित प्रौद्योगिकियों में निवेश बढ़ाने पर जोर दिया है, लेकिन यहां भारत को यह ध्यान में रखना चाहिए कि चीन अक्षय ऊर्जा, विशेषकर सौर और पवन ऊर्जा उत्पादन में दुनिया में सबसे आगे है। एक बात और, साल 2025 तक चीन की ऊर्जा खपत में गैर-जीवाश्म स्रोतों की हिस्सेदारी 20% से अधिक करने का लक्ष्य है, जो लगभग पूरा हो चुका है। बहरहाल, यहां कहना चाहूंगा कि आज के समय में विकासशील देशों की कोप (सीओपी) सम्मेलनों में भूमिका अब कहीं अधिक प्रभावशाली और रचनात्मक हो गई है। इन देशों ने यह दिखाया है कि जलवायु परिवर्तन सिर्फ विकसित देशों की जिम्मेदारी नहीं, बल्कि सभी की साझा चुनौती है। भारत, चीन, ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका जैसे देशों ने हरित ऊर्जा, कार्बन उत्सर्जन में कमी, और सतत विकास की दिशा में ठोस कदम उठाए हैं।भारत ने सौर ऊर्जा और ग्रीन हाइड्रोजन मिशन जैसे कार्यक्रमों से उदाहरण पेश किया है, जबकि चीन अक्षय ऊर्जा में सबसे बड़ा निवेशक बन गया है। ये देश यह भी लगातार मांग कर रहे हैं कि विकसित देश अपने वित्तीय और तकनीकी सहयोग के वादे पूरे करें, ताकि गरीब और विकासशील राष्ट्र जलवायु संकट से निपट सकें। इस तरह, कोप में विकासशील देशों की भूमिका अब केवल भागीदार नहीं, बल्कि नीति-निर्माण में नेतृत्वकारी बनती जा रही है। पाठकों को बताता चलूं कि हाल ही में जलवायु परिवर्तन पर शुरू हुई ‘संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन’ की 30वीं वार्षिक बैठक में इन दोनों देशों की परिवर्तनकारी भूमिका की सराहना की गई। साथ ही, यह बात कही गई है कि कि इन देशों ने जलवायु कार्रवाई को स्पष्ट तरीके से अपनाया है और वे दुनियाभर में स्वच्छ प्रौद्योगिकियों की लागत कम करने में मदद कर रहे हैं। वास्तव में, पेरिस समझौते के तहत विकसित देशों ने वादा किया था कि वे जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए विकासशील देशों को धन और तकनीक से मदद करेंगे। लेकिन संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट बताती है कि यह मदद लगातार घटती ही जा रही है-साल 2023 में केवल केवल 26 अरब डॉलर मिली, जबकि जरूरत 365 अरब डॉलर सालाना की है। विकसित देशों ने अपने वादे पूरे नहीं किए, शायद क्योंकि उन्हें इसमें अपना लाभ नहीं दिखता। कहना ग़लत नहीं होगा कि विकसित देश सीओपी सम्मेलनों में अपनी प्रतिबद्धताओं, विशेषकर जलवायु वित्त और उत्सर्जन में कमी के लक्ष्यों से, मुख्य रूप से आर्थिक हितों, घरेलू राजनीतिक दबावों और ऐतिहासिक जिम्मेदारी से बचने के कारण पीछे हट रहे हैं, जबकि सच यह है कि सबसे ज्यादा प्रदूषण वही करते हैं। दरअसल, विकसित देशों ने औद्योगीकरण और उच्च उपभोग स्तर ने ऐतिहासिक रूप से ग्रीनहाउस गैसों और अन्य प्रदूषकों के उत्सर्जन में सबसे अधिक योगदान दिया है। इसके अतिरिक्त, विकसित देशों में प्रति व्यक्ति उत्सर्जन (विशेषकर परिवहन, उद्योग और ऊर्जा उत्पादन आदि क्षेत्रों में) भी अक्सर अधिक होता है। चूंकि, विकसित देशों के पास प्रदूषण नियंत्रण प्रौद्योगिकियों में लगातार निवेश करने, स्वच्छ ऊर्जा स्रोतों को अपनाने और प्रभावी अपशिष्ट प्रबंधन प्रणालियों को लागू करने के लिए अधिक आर्थिक संसाधन और तकनीकी क्षमताएं,कौशल आदि उपलब्ध होतीं हैं, इसलिए विकासशील देशों की मदद करना उनकी नैतिक जिम्मेदारी बनती है। अतः अब जरूरत इस बात की है कि इस मुद्दे पर केवल बातें नहीं, बल्कि ठोस और सकारात्मक कदम उठाए जाएं तभी इस सम्मेलन की सार्थकता सही मायनों में सिद्ध हो सकेगी।

सुनील कुमार महला

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