गुरु से मिलने वाले संस्कार ही मनुष्य को महान बनाते हैं

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आषाढ़ मास की पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा के रूप में मनाया जाता है। इस बार गुरु पूर्णिमा 3
जुलाई, सोमवार को मनाई जाएगी। हिन्दू पंचांग के अनुसार, आषाढ़ की पूर्णिमा तिथि को गुरु
पूर्णिमा का पर्व मनाया जाता है। मान्यता है कि गुरु पूर्णिमा के ही दिन महर्षि वेदव्यास जी का
जन्म हुआ था। गुरु पूर्णिमा की शुरुआत 2 जुलाई की रात को 8 बजकर 21 मिनट पर हो रही
है। जिसका समापन 3 जुलाई को शाम 5 बजकर 8 मिनट पर होगा। सूर्य उदयतिथि के अनुसार
गुरु पूर्णिमा 3 जुलाई को मनाई जाएगी।
गुरु बिन ज्ञान गंगा बिन तीर्थ और एकादशी बिना व्रत कहाँ है। आज भी ज्ञान गंगा का यह
भजन गावं गुवाड़ में लोग भक्ति भाव से गाते और सुनते मिल जाते है। गुरु से सर तक की
दौड़ में हम अपने पौराणिक महत्व के पर्वों को भूलते बिसरते जा रहे है। ऐसे में गुरु पूर्णिमा का
पर्व हमें एक बार फिर गुरु के गौरव से अवगत कराता है। हमारे देश में गुरु पूर्णिमा का पर्व एक खास
महत्व रखता है। इस दिन वेदों के रचयिता वेद व्यास के जन्म दिवस होने के कारण गुरु पूर्णिमा को व्यास
पूर्णिमा भी कहा जाता है। गुरु के प्रति आदर सम्मान व्यक्त करने के लिए आषाढ़ मास की पूर्णिमा को गुरु
पूर्णिमा मनाई जाती है। इस बार यह 3 जुलाई 2023 को मनाई जाएगी। जीवन में गुरु और शिक्षक के महत्व
को आने वाली पीढ़ी को बताने के लिए यह पर्व आदर्श है। मान्यता है कि प्राचीन काल में इसी दिन शिष्य
अपने गुरुओं की पूजा करते थे। गुरू और शिक्षक में भी अंतर बताया गया है। शिक्षक अक्षर ज्ञान कराता है
वहीँ गुरु जीवन का ज्ञान। प्राचीन समय से ही गुरु ज्ञान के प्रसार के साथ-साथ समाज के विकास का बीड़ा
उठाते रहे हैं। जीवन में अधंकार को दूर कर ज्ञान की ज्योति प्रज्ज्वलित करने वाला गुरु होता है। गुरु
अज्ञान को दूर कर हमें ज्ञान का प्रकाश देता है। यह जीवन के हर क्षेत्र में गुरु के महत्त्व पर बल देता है। गुरु
बच्चों को ज्ञानवान और सुसंस्कृत बनाते हैं। बच्चा घर से निकल कर विद्यालय में प्रवेश लेता है तो गुरु ही
उसका अभिभावक होता है। बच्चों में अच्छे संस्कार गुरु ही डालता है। संस्कारवान बच्चे में देश सेवा का
जज्बा होता है। विद्यालय से निकलकर वे देश सेवा का का व्रत लेते है।
भारत में गुरूकुल की शिक्षा को आज भी याद किया जाता है। गुरूकुल की शिक्षा में हमारे आपसी सम्बन्धों,
सामाजिक सांस्कृतिक एकता, गौरवशाली परम्पराओं को प्रमुखता से केन्द्र बिन्दु में रखा जाता था ताकि

बालक पढ़ लिखकर चरित्रवान बने और उसमें नैतिक संस्कारों का समावेश हो। द्रोणाचार्य का उदाहरण
हमारे सामने है। एकलव्य ने द्रोणाचार्य को ही अपना गुरु बताया था और गुरु ने शिष्य से उसका अंगूठा ही
मांग लिया। गुरु शिष्य परम्परा में दुनियां में ऐसे उदाहरण मिलना मुश्किल है।
आज गुरु शिष्य परम्परा लगभग समाप्त होती जारही है। एक दूसरे के प्रति अनुराग श्रद्धा और प्रेम की
भावना नहीं रही है। गुरु शब्द ही खत्म हो गया है। गुरु का स्थान शिक्षक ने ले लिया है। सरकारी सेवा में आने
के बाद शिक्षक केवल अपने काम से मतलब रखता है। शिष्य पढ़ रहा है या नहीं इससे कोई सरोकार नहीं है।
शिक्षक का ध्यान अपने वेतन भत्तों पर ज्यादा रहता है। हड़ताल जैसे उसका जन्म सिद्ध अधिकार है। सही
तो यह है आज जो शिक्षा बच्चों को दी जारही है उसमें संस्कार का नितांत अभाव है। बच्चा पढ़े तो ठीक है
और न पढ़े तो भी ठीक है। अब तो स्थिति यह हो गई है कि विद्यालय में न तो बच्चा पढ़ना चाहता है और न
अध्यापकों की शिक्षण में कोई रुचि है।
ऐसा लगता है गुरु शिष्य के मध्य एक बड़ी खाई आ गई है जिसे पाटना बेहद मुश्किल है। जब तक दोनों के
बीच भावनात्मक सम्बन्ध विकसित नहीं होंगे तब तक हमारी पौराणिक परम्परा और गुरु शिष्य के प्रेम
और समर्पण के सम्बन्ध बहाल नहीं होंगे। इसके लिए कोई एक दोषी नहीं है। हमारा समाज भी उत्तरदायी है।
आज जरुरत इस बात की है कि हम अनुशासन और समर्पण की भावना का अंगीकार कर आगे बढे तभी गुरु
पूर्णिमा का पर्व मनाने की सार्थकता सिद्ध होगी।

-बाल मुकुन्द ओझा

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