अबकी बार 400 पार और 'मोदी हटाओ-लोकतंत्र बचाओ के नारों के बीच लोकसभा चुनाव की तिथि ज्यों ज्यों नजदीक आती जा रही है त्यों त्यों लोगों के दिलों की धड़कने बढ़ती जा रही है। हर व्यक्ति परिणाम जानना चाहता है, ऐसे में ओपिनियन पोल ने बढ़ी धड़कनों को थामने का प्रयास किया है। लोकसभा चुनाव से पहले आए विभिन्न टीवी चैनलों द्वारा कराये फाइनल ओपिनियन पोल में एक बार फिर पूर्ण बहुमत के साथ बीजेपी की सरकार बनती दिख रही है। ओपिनियन पोल के मुताबिक मोदी सरकार पर देश की जनता का भरोसा कायम है। खबरिया चैनलों ने 16 अप्रैल को कराये लोकसभा चुनाव के फाइनल ओपिनियन पोल में एनडीए के हैट्रिक लगाने की भविष्यवाणी कर दी है। इससे पूर्व भी जितने चुनावी सर्वे हुए उनमें भाजपा नीत एनडीए के तीसरी बार सरकार बनाने की बात स्वीकार की गई थी। एबीपी-सी वोटर के सर्वे में एनडीए के खाते में 371 सीटें बताई जा रही है। वहीँ इंडिया टीवी ओपिनियन पोल में एनडीए को 393 सीटें जाती दिख रही है। अन्य सर्वे भी भाजपा को हैट्रिक लगाने की बात कह रहे है। ओपिनियन पोल के नतीजों के हिसाब से हरियाणा, दिल्ली, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश इन राज्यों में बीजेपी क्लीन स्वीप करती हुई नजर आ रही है। बीजेपी अपने दम पर फिर से बहुमत का आकंड़ा पार कर लेगी। सर्वे में देश का मूड प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ दिख रहा है। इस ताज़ा सर्वे को देखे तो देश में महंगाई के तांडव, बेरोजगारी, अर्थव्यवस्था में गिरावट और विपक्ष के ताबड़तोड़ हमलों के बावजूद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता में कोई कमी नहीं आयी है। मोदी का जादू अभी बरकरार है। मोदी की लोकप्रियता लगातार बनी हुई है। चुनाव आते ही सर्वेक्षणों की बहार भी आ जाती है। चुनाव के दौरान निर्वाचकों और मतदाताओं से बातचीत कर विभिन्न राजनीतिक दलों, उम्मीदवारों की जीत हार के पूर्वानुमानों के आकलन की प्रक्रिया चुनावी सर्वे कहलाती है। मुख्य तौर पर ओपिनियन पोल सर्वे चलन में है। इसमें क्वेश्चनॉयर तैयार कर सर्वे टीम घर-घर जाती है। बाद में वोटर्स के जवाब के आधार पर परिणाम निकाला जाता है। हमारे देश में दो चीजों का विकास करीब-करीब एक साथ ही हुआ है। पहला इन चुनावी सर्वेक्षणों और दूसरा इलेक्ट्रॉनिक मीडिया या कहें समाचार चैनलों का। खबरिया चैनलों की भारी भीड़ ने चुनावी सर्वेक्षणों को पिछले दो दशक से हर चुनाव के समय का अपरिहार्य बना दिया है। आज बिना इन सर्वेक्षणों के भारत में चुनावों की कल्पना भी नहीं की जाती। बल्कि कुछ खबरिया चैनल तो साल में कई बार ऐसे सर्वेक्षण करवाते हैं और इसके जरिये सरकारों की लोकप्रियता और समाज को प्रभावित करने वाले मुद्दों की पड़ताल करते रहते हैं। ऐसे में यह जानना दिलचस्प है कि आखिर भारत में इन सर्वेक्षणों का अर्थशास्त्र क्या है? आखिर इन सर्वेक्षणों को करवाने से किसका भला होता है। टीवी चैनल टीआरपी के चक्कर में अपनी लोकप्रियता दांव पर लगा देते है। यदि सर्वे सही जाता है तो बल्ले बल्ले अन्यथा साख पर विपरीत असर देखने को मिलता है। चुनाव के पहले और मतदान के बाद कई एजेंसियां सर्वेक्षण कराती हैं और संभावित जीत- हार के अनुमान पेश करती हैं. कई बार इन सर्वेक्षणों के नतीजे चुनावी नतीजों के करीब बैठते हैं तो कई बार औंधे मुंह गिर जाते हैं। मतदाताओं का मूड भांपने का दावा करने वाले ऐसे सर्वेक्षणों में कई बार लोगों और राजनीतिक दलों की दिलचस्पी दिखाई देती है। कोई दावा नहीं कर सकता कि हमारे देश में चुनाव पूर्व सर्वेक्षण तरह विश्वसनीय होते हैं ।
-प्रमेन्द्र शर्मा