क्या KCR को अपनी सत्ता बचने के साथ अपनी सीट बचने की भी चिंता है ?

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KCR के नाम से मशहूर तेलंगाना के मुख्यमंत्री के। चंद्रशेखर राव हैट्रिक की कोशिश में जी जान से जुटे हैं। हैदराबाद में बने रहने के लिए अपनी पार्टी के नाम में तेलंगाना की जगह भारत लगा कर दिल्ली में भी दफ्तर खोल चुके हैं – लेकिन उनके मिशन में दिल्ली की दो पार्टियां,  भाजपा  और कांग्रेस, बाधा बन कर खड़ी हो गयी हैं।हैदराबाद में सबसे पहले भाजपा  ने दस्तक दी थी, कांग्रेस को तो वैसे भी फैसले लेने में काफी वक्त लग जाता है। जुलाई, 2022 में भाजपा  ने हैदराबाद में राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक की थी। बैठक के बहाने भाजपा  के सारे महत्वपूर्ण नेता तेलंगाना पहुंचे थे – और जिसे जितना और जहां बन पड़ा, केसीआर की सरकार पर हमले बोलता रहा।  जहां बन पड़ा, केसीआर की सरकार पर हमले बोलता रहा।  देखा देखी, कांग्रेस ने भी तेलंगाना में CWC की बैठक बुलायी। सार्वजनिक समारोहों में जरूरत भर शिरकत करने वाली सोनिया गांधी ने हैदराबाद के पास तुक्कूगुडा में एक पब्लिक रैली भी की – और कांग्रेस की तरफ से महत्वपूर्ण घोषणाएं भी की, ‘हम 6 गारंटी की घोषणा कर रहे हैं …  हम हर गारंटी को पूरा करने के लिए प्रतिबद्ध हैं।’

अब तेलंगाना में सत्ता की लड़ाई निर्णायक मोड़ पर पहुंच चुकी है। कल्याण योजनाओं (फ्रीबीज) के सहारे लगातार तीसरी बार वापसी के लिए प्रयासरत मुख्यमंत्री के। चंद्रशेखर राव (KCR) ने पूरी ताकत लगा दी है। सशंकित भी कम नहीं हैं। सत्ता बचाने के साथ उनके सामने  अपनी सीट बचाने की चुनौती है। यही कारण है कि इस बार उन्होंने दो सीटों से नामांकन किया है।परंपरागत सीट गजवेल से लगातार तीसरी बार और कामारेड्डी से पहली बार मैदान में हैं। गजवेल में उनके ही पुराने सहयोगी एटाला राजेंदर ने भाजपा के टिकट पर चुनौती दे रखी है तो कामारेड्डी में कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष रेवंत रेड्डी ने घेर लिया है, जो कांग्रेस के मुख्यमंत्री दावेदार भी माने जा रहे हैं।

हैदराबाद से 54 किमी दूर गजवेल में हालांकि, केसीआर जीत को लेकर आश्वस्त है और इसीलिए अब तक प्रचार के लिए नहीं आए। अब विरोधी खेमा इसे ही मुद्दा बना रहे हैं, क्योंकि ऐसे भी कई हैं जिन्होंने पिछले दस साल में कभी केसीआर को सामने से देखा ही नही हैं।लगभग 60 हजार आबादी वाले गजवेल कस्बे को अपनी किस्मत पर गर्व है। चमचमाती सड़कें शोर मचाती हैं कि यह वीआईपी क्षेत्र है। चार लेन की मुख्य सड़क के बीच में फूलों की क्यारियां आकर्षित करती हैं। चमकीले बोर्ड, अस्पताल, बैंकों की शाखाएं और लोगों की समृद्ध मुस्कान बताती है कि नौ वर्षों में इस क्षेत्र का काफी ख्याल रखा गया है। फिर भी केसीआर शायद भूल रहे हैं कि अलग तेलंगाना के प्रणेता के रूप में वोटरों ने उन्हें 2014 में पसंद किया था। 2018 की कहानी भी अलग थी। तब तेलंगाना भावना उफान पर थी।

कल्याण योजनाओं ने केसीआर की छवि को निखार दिया था। दस वर्षों में स्मृतियां कमजोर हो जाती हैं। लोग भूलने लगते हैं। उसपर कांग्रेस नेता प्रियंका गांधी का मंचों से यह आरोप कि भाजपा और बीआरएस में फिक्सिंग है, केसीआर को परेशान तो कर ही रहा है। हालांकि, सच यह है कि केसीआर के लिए गजवेल की चुनौती इसलिए बड़ी है कि भाजपा के एटाला राजेंदर मैदान में हैं, जो पहले बीआरएस में भी रह चुके हैं। कांग्रेस ने नरसा रेड्डी को उतार रखा है।

विरोधियों के तमाम हमले के बावजूद आम धारणा है कि गजवेल के लोग केसीआर से खुश हैं। शायद केसीआर को भी ऐसा ही भ्रम है। इसीलिए उन्होंने इस चुनाव में प्रचार के लिए अभी तक गजवेल में कदम नहीं रखा है। चिरपल्ली के गौडाराम कहते हैं कि उन्हें पूरा प्रदेश देखना है। गजवेल के लिए हमलोग पर्याप्त हैं।बिल्डिंग मटेरियल सप्लायर नरसिम्हा बताते हैं कि हम वोट देते हैं, लेकिन कभी सामने से देखा नहीं। हमारा काम हो जाता है, मगर मुलाकात नहीं होती। शादी-समारोहों में भी बुलाने पर नहीं आते। केसीआर की इसी शैली को भाजपा प्रत्याशी एटाला उछाल रहे हैं।

केसीआर सरकार में स्वास्थ्य एवं वित्त विभाग संभाल चुके एटाला तेलंगाना आंदोलन में भी साथ थे। जमीन घोटाले के आरोप में 2021 में केसीआर ने बर्खास्त कर दिया था। इसके बाद वह भाजपा में शामिल हो गए। एटाला लोगों को केसीआर के पुराने वादों की याद दिला रहे हैं। रैलियों में कहते हैं कि 2018 के चुनाव में केसीआर ने गरीबों को टू-बीएचके फ्लैट, प्रत्येक परिवार में एक को नौकरी एवं विभिन्न स्तरों पर राज्य सरकार में दो लाख वैकेंसी को भरने की कसम खाई थी। जो कहा था वो दिया क्या?

एटाला खुद को भी एक राजनीतिक पीड़ित बताते हैं। केसीआर की मुश्किलें इसलिए भी बढ़ती दिख रही है कि एटाला मुदिराज समुदाय से आते हैं, जो ओबीसी है। गजवेल विधानसभा क्षेत्र में इसकी आबादी लगभग 60,000 है, जबकि केसीआर वेलमा जाति से हैं, जिसकी आबादी प्रदेश में बहुत ही कम है। चुनौतियां कांग्रेस की ओर से भी है। केसीआर को भरोसा अपनी उन कल्याणकारी योजनाओं पर है, जिन्हें वह नौ वर्षों से चलाते आ रहे हैं।

बीआरएस के प्रचारक वोटरों को आगाह करते हैं कि कांग्रेस या भाजपा अगर सत्ता में आ गई तो ये सारी योजनाएं बंद हो जाएंगी, मगर कांग्रेस वोटरों को आगे की दुनिया दिखा रही है। उसकी छह गारंटियों में उन सारी योजनाओं की राशि लगभग दुगुनी है जिन्हें केसीआर की सरकार ने पहले से चला रखा है।

गौरतलब है कि केसीआर को मालूम था कि इस चुनाव में उन्हें कांग्रेस और भाजपा दोनों से लोहा लेना पड़ेगा इसीलिए चुनावों में कांग्रेस और भाजपा  से लोहा लेने के मकसद से ही केसीआर पहले से ही राष्ट्रीय राजनीति में दखल देने की कोशिश शुरू कर थे,  लेकिन तीसरा मोर्चा खड़ा करने की उनकी कोशिश कोई खास रंग नहीं ला सकी। केंद्र में सत्ताधारी भाजपा  के खिलाफ आज की तारीख में  ज्यादातर राजनीतिक दल एकजुट देखे जा सके , लेकिन केसीआर की कोशिश उन दलों का गठबंधन खड़ा करने में रहा है, जो कांग्रेस  और भाजपा  दोनों से परहेज करते हों। दिल्ली पहुंच कर केसीआर ने आम आदमी पार्टी नेता अरविंद केजरीवाल और समाजवादी पार्टी  नेता अखिलेश यादव को साथ लेकर चलने  की कोशिश भी की, लेकिन बाद में वे दोनों ही इंडिया  गठबंधन का हिस्सा बन गये। ये बात अलग है कि अखिलेश यादव व केजरीवाल दोनों एक बार फिर अलग छोर पर जाकर खड़े नजर आ रहे हैं। केसीआर पर परिवारवाद की राजनीति को लेकर तो कांग्रेस और भाजपा  एक जैसा आरोप लगा रहे हैं, लेकिन अपनी खास स्टाइल में घेर रही है। भाजपा  उर्दू को तेलंगाना की दूसरी भाषा बनाने के लिए हमलावर है और केसीआर की पार्टी और सरकार पर मंदिरों की जमीन पर कब्जे का आरोप लगा रही है – लेकिन सबसे ज्यादा चौंकाने वाली बात है पूर्व केंद्रीय मंत्री पी . चिदंबरम का कांग्रेस की तरफ से माफी मांगना।

दक्षिण भारत के लिए भाजपा  अब भी उत्तर भारत की राजनीतिक पार्टी बनी हुई है। जैसे तैसे कर्नाटक में बीएस येदियुरप्पा ने भाजपा  को  सत्ता दिला दी थी, लेकिन उनको ही निबटाने के चक्कर में भाजपा  खुद पैदल हो गयी। भूल सुधार करते हुए भाजपा  ने सूबे की कमान अब येदियुरप्पा के बेटे को ही सौंप दी है।  जैसे कर्नाटक में कांग्रेस ने 40 फीसदी कमीशन वाली सरकार का प्रचार कर सत्ता हथिया ली, भाजपा  भी तेलंगाना में वही तरीका अपना रही  है। भाजपा  का आरोप कांग्रेस के मुकाबले 10 फीसदी कम है – भाजपा  नेता जेपी नड्डा ने केसीआर की सरकार को 30 फीसदी कमीशन  वाली सरकार बता कर कठघरे में खड़ा करने की कोशिश कर रहे हैं।

5 राज्यों में हो रहे चुनावों की तुलना करें तो सभी मुख्यमंत्रियों के सामने करीब करीब एक जैसी ही चुनौती है। तेलंगाना की स्थिति भी कोई  अलग तो नहीं है, लेकिन अशोक गहलोत, भूपेश बघेल और शिवराज सिंह चौहान से तुलना करें तो पाएंगे कि केसीआर की पोजीशन बेहतर है। शायद, इसलिए क्योंकि भाजपा  और कांग्रेस तेलंगाना में केसीआर को वैसे ही चैलेंज पेश कर रहे हैं, जैसे दिल्ली में मोदी सरकार को  बिखरा हुआ विपक्ष। जैसे देश में मोदी सरकार के सामने सामने विपक्ष मजबूत चैलेंज नहीं पेश कर पा रहा है, तेलंगाना में भी तकरीबन वैसी ही स्थिति है – लेकिन जो जोखिम भाजपा  के लिए 2024 के लिए है, केसीआर के सामने भी सब कुछ अभी वैसा ही है।

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