चुनावी सर्वे कितना खर्रा कितना खोटा

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तेलंगाना में मतदान समाप्त होते ही राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, तेलंगाना और मिजोरम
विधान सभा चुनाव के एग्जिट पोल की होड़ लग गई। खबरिया चैनलों द्वारा विभिन्न सर्वे
एजेंसियों की मदद से कराये एग्जिट पोल का निचोड़ निकाले तो राजस्थान और मध्य प्रदेश में
भाजपा, छत्तीसगढ़ और तेलंगाना में कांग्रेस और मिजोरम में क्षेत्रीय पार्टी की बढ़त दिखाई दे रही
है। हालाँकि किसी भी पार्टी ने अपने विरोध में दिखाए गए एग्जिट पोल को स्वीकार करने से
इंकार कर दिया है। वास्तविकता का पता तीन दिसंबर की मतगणना से ही ज्ञात होगा।
इलेक्ट्रॉनिक मीडिया आजकल चुनाव में बड़ी भूमिका निभाने लगे है। चुनावी सर्वे करने वाली
विभिन्न संस्थाओं से मिलकर किये जाने वाले सर्वेक्षणों में मतदाताओं का मूड जानने का प्रयास
कर सटीक आकलन किया जाता है। कई बार ये सर्वे वास्तविकता के नजदीक होते है तो कई
बार फैल भी हो जाते है। इसी के साथ खबरिया चैनलों और सर्वे एजेंसियों की साख दांव पर लग
जाती है। आज इस आलेख के माध्यम से हम चुनावी सर्वे का लेखाजोखा ले रहे है।
हमारे देश में दो चीजों का विकास करीब-करीब एक साथ ही हुआ है। पहला चुनावी सर्वेक्षणों और दूसरा
इलेक्ट्रॉनिक मीडिया या कहें समाचार चैनलों का। समाचार चैनलों की भारी भीड़ ने चुनावी सर्वेक्षणों को
पिछले तीन दशक से हर चुनाव के समय का अपरिहार्य बना दिया है। आज बिना इन सर्वेक्षणों के भारत में
चुनावों की कल्पना भी नहीं की जाती। बल्कि कुछ समाचार चैनल तो साल में कई बार ऐसे सर्वेक्षण करवाते
हैं और इसके जरिये सरकारों की लोकप्रियता और समाज को प्रभावित करने वाले मुद्दों की पड़ताल करते
रहते हैं। आजकल सर्वे की बहुत ज्यादा चर्चा हो रही है। जिसे चाहे वह सर्वे करवा रहा है। आखिर
यह सर्वे है क्या, इसकी जानकारी जनसाधारण को होनी बहुत जरुरी है। सीधे शब्दों में बात करें
तो किसी भी महत्वपूर्ण जानकारी या किसी भी विषय पर लोगों के मन की बात जानने के लिए
लोगों के बीच में सर्वे किया जाता है, जिससे कि वहां के समाज के लोगों की क्या स्थिति है
,और वहां पर क्या चल रहा है उन सभी का हमें पता चल जाता है। कुल मिलकर लोगों के मन
की बात सर्वे के दौरान जानने की चेष्टा की जाती है। सर्वे शत प्रतिशत सही हो इसका दवा नहीं
किया जा सकता ,फिर भी सर्वे के महत्त्व से नकारा नहीं जा सकता।
एक समय था केवल सरकारें ही सर्वे करवाती थी। लोग सर्वे का मतलब जमीन की नापजोख से
निकालते थे। मगर अब सर्वे बहुत विस्तृत हो गया है। हर मामले में सर्वे करवाकर लोगों के मन

की थाह ली जाती है और फिर योजनाएं बनाकर उसका क्रियान्वयन करवाया जाता है। इनमें
चुनावी सर्वे लोगों को बहुत पसंद आता है। यह सर्वे लोकप्रिय भी हुआ है। भारत में जब भी
चुनाव होता है उसके पहले और बाद में ज्यादातर सर्वे एजेंसियों, मीडिया चैनलों और अखबारों
द्वारा इलेक्शन सर्वे तैयार किया जाता है। यह इसलिए कराया जाता है ताकि मालूम हो सके कि
चुनाव में जनता और मतदान का रुख क्या रहा और सरकार किसकी बन सकती है।
चुनावी सर्वे कराए जाने की शुरुआत दुनिया में सर्वप्रथम अमेरिका में हुई थी। अमेरिकी सरकार के कामकाज
पर लोगों की राय जानने के लिए जॉर्ज गैलप और क्लॉड रोबिंसन ने इस विधा को अपनाया, जिन्हें
ओपिनियन पोल सर्वे का जनक माना जाता है। भारत में वर्ष 1960 में ही चुनाव पूर्व सर्वे का खाका खींच
दिया गया था। तब ‘सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसायटीज (सीएसडीएस) द्वारा इसे तैयार किया
गया था। भारत में एग्जिट पोल की शुरूआत का श्रेय इंडियन इंस्टीच्यूट ऑफ पब्लिक ओपिनियन के प्रमुख
एरिक डी कोस्टा को दिया जाता है, जिन्हें चुनाव के दौरान इस विधा द्वारा जनता के मिजाज को परखने
वाला पहला व्यक्ति माना जाता है। चुनाव के दौरान इस प्रकार के सर्वे के माध्यम से जनता के रूख को
जानने का काम सबसे पहले एरिक डी कोस्टा ने ही किया था। शुरूआत में देश में सबसे पहले इन्हें पत्रिकाओं
के माध्यम से प्रकाशित किया गया जबकि बड़े पर्दे पर चुनावी सर्वेक्षणों ने 1996 में उस समय दस्तक दी,
जब दूरदर्शन ने सीएसडीएस को देशभर में एग्जिट पोल कराने के लिए अनुमति प्रदान की। 1998 में चुनाव
पूर्व सर्वे अधिकांश टीवी चैनलों पर प्रसारित किए गए और तब ये बहुत लोकप्रिय हुए थे लेकिन कुछ
राजनीतिक दलों द्वारा इन पर प्रतिबंध लगाए जाने की मांग पर 1999 में चुनाव आयोग द्वारा ओपिनियन
पोल तथा एग्जिट पोल पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। तत्पश्चात् एक अखबार ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा
खटखटाया और सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग के फैसले को निरस्त कर दिया।
टीवी चैनल टीआरपी के चक्कर में अपनी लोकप्रियता दांव पर लगा देते है। यदि सर्वे सही जाता है तो बल्ले
बल्ले अन्यथा साख पर विपरीत असर देखने को मिलती है। कोई दावा नहीं कर सकता कि हमारे देश में
चुनाव पूर्व सर्वेक्षण पूरी तरह विश्वसनीय होते हैं ।

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