धार्मिक आस्था में समानता ही सर्वोच्च है

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भारत धर्म-कर्म में विश्वास करने वाला देश है और यहां की अधिकांश जनता अध्यात्म में विश्वास करती है। यही कारण भी है कि हमारे देश में मंदिर भी बहुतायत में हैं। मंदिर एक ऐसा पवित्र स्थान है, जहां हर व्यक्ति को भगवान के दर्शन करने की खुली छूट है, लेकिन अब मंदिरों में भी वीआइपी दर्शन होने लगे हैं,इसे ठीक नहीं कहा जा सकता है। कहना ग़लत नहीं होगा कि मंदिरों में वीआईपी दर्शन का मामला हमारे देश में एक लंबे समय से विवाद का विषय रहा है। वीआईपी दर्शन के तहत कुछ खास, बड़ी पहुंच वाले लोगों को अलग लाइन बनाकर, बहुत ही कम समय में या विशेष सुविधा के साथ(कहीं-कहीं तो इसका शुल्क भी तय है) भगवान के दर्शन कराए जाते हैं, जबकि आम श्रद्धालुओं को घंटों-घंटों तक कतार में लगने को विविश होना पड़ता है। मतलब सीधा सा है कि यदि आप आम आदमी हो तो आपको भगवान के दर्शन के लिए बहुत सा समय लग सकता है और यदि आप कोई वीआईपी व्यक्ति हो, बड़ी पहुंच वाले हो, तो आपको भगवान के दर्शन कुछ ही समय में हो सकते हैं, आपको लंबी कतार में लगने की आवश्यकता नहीं है। वास्तव में, मंदिरों में वीआईपी दर्शन की परंपरा को सीमित कर समानता और श्रद्धा के मूल भाव को बनाए रखना आज बहुत ही आवश्यक है। बहरहाल,यहां प्रश्न यह उठता है कि जब ईश्वर के सामने सभी समान हैं, तो फिर दर्शन में ऐसा भेदभाव आखिर क्यों होना चाहिए ? क्या सबको भगवान के दर्शन हेतु समान अवसर और मौका नहीं मिलना चाहिए ? क्या यह विडंबना नहीं है कि कई बार वीआईपी दर्शन के कारण सामान्य दर्शन रोक दिए जाते हैं। वास्तव में इससे आम भक्तों को बहुत सी असुविधाओं का सामना करना पड़ता है और उन्हें काफी परेशानी होती है। यहां तक कि उनकी धार्मिक भावनाओं को ठेस भी पहुंचती है। हाल फिलहाल, यहां पाठकों को बताता चलूं कि अदालतों ने इस व्यवस्था पर सख्त टिप्पणी करते हुए यह बात कही है कि पद या रसूख के आधार पर भगवान के विशेष दर्शन अनुचित है और इससे आम श्रद्धालुओं के अधिकारों का हनन होता है। हालांकि, राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री जैसे अतिविशिष्ट व्यक्तियों के लिए सुरक्षा कारणों से अलग व्यवस्था को आवश्यक माना गया है, लेकिन इसे वीआईपी संस्कृति नहीं कहा जा सकता। अच्छी बात यह है कि अदालतों और सरकारों ने यह निर्देश दिए हैं कि वीआईपी दर्शन(मंदिर में भगवान के दर्शन) के कारण सामान्य दर्शन बाधित न हों, दर्शन व्यवस्था पारदर्शी हो और पैसे के आधार पर भेदभाव न किया जाए। गौरतलब है कि हाल ही में वृंदावन स्थित बांके बिहारी मंदिर में वीआईपी दर्शन की व्यवस्था को लेकर विवाद सामने आया है। आम श्रद्धालुओं को लंबी कतारों और भीड़ में घंटों प्रतीक्षा करनी पड़ती थी, जबकि प्रभावशाली लोगों को विशेष सुविधा मिलती थी। इसे आस्था में समानता के सिद्धांत के विरुद्ध बताया गया। मामले के न्यायिक संज्ञान के बाद अदालत ने यह स्पष्ट किया है कि मंदिर दर्शन में भेदभाव नहीं होना चाहिए और व्यवस्था ऐसी होनी चाहिए कि इससे आम श्रद्धालुओं के अधिकार प्रभावित न हों। इसके बाद प्रशासन और मंदिर प्रबंधन को वीआईपी दर्शन पर नियंत्रण, भीड़ प्रबंधन सुधारने और समान दर्शन व्यवस्था सुनिश्चित करने के निर्देश दिए गए। दूसरे शब्दों में कहें तो मंदिरों में वीआईपी दर्शन को लेकर माननीय सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में अहम टिप्पणी की। दरअसल, इस याचिका में मांग की गई थी कि मंदिरों में वीआईपी या विशेष दर्शन की व्यवस्था खत्म की जाए, क्योंकि इससे आम श्रद्धालुओं के साथ भेदभाव होता है और संविधान में निहित समानता के अधिकार का उल्लंघन होता है। सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि मंदिरों में वीआईपी ट्रीटमेंट मनमाना और अनुचित लगता है, लेकिन साथ ही यह भी स्पष्ट किया कि दर्शन व्यवस्था तय करना नीतिगत मामला है, जिसमें अदालत सीधे हस्तक्षेप नहीं कर सकती। कोर्ट ने इस आधार पर याचिका पर आदेश देने से इनकार कर दिया, हालांकि अदालत ने यह संदेश जरूर दिया कि पद, पैसा या प्रभाव के आधार पर विशेष सुविधाएं धार्मिक स्थलों की मूल भावना के खिलाफ हैं। वास्तव में मंदिर प्रबंधन के फैसलों से आम श्रद्धालुओं की आस्था और अधिकार प्रभावित नहीं होने चाहिए और कोर्ट ने यही बात कही है।कुल मिलाकर, हम यहां यह बात कही सकते हैं कि हाल के मामलों में सुप्रीम कोर्ट ने वीआईपी दर्शन को पूरी तरह अवैध घोषित नहीं किया है, लेकिन इसे अनुचित परंपरा बताते हुए सरकारों और मंदिर प्रबंधन को आत्ममंथन और सुधार का स्पष्ट संकेत दिया है। यहां पाठकों को बताता चलूं कि समानता और धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार भारतीय संविधान द्वारा प्रदत्त दो अत्यंत महत्वपूर्ण मौलिक अधिकार हैं। समानता का अधिकार संविधान के अनुच्छेद 14 से 18 तक निहित है, जिसके अंतर्गत कानून के समक्ष सभी नागरिकों को समान माना गया है और धर्म, जाति, लिंग, जन्मस्थान या पद के आधार पर किसी प्रकार का भेदभाव निषिद्ध है। इसका उद्देश्य एक न्यायपूर्ण और समतामूलक समाज की स्थापना करना है। वहीं धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार संविधान के अनुच्छेद 25 से 28 तक वर्णित है, जो प्रत्येक व्यक्ति को अपने धर्म को मानने, उसका पालन करने और उसका प्रचार करने की स्वतंत्रता देता है। हालांकि यह स्वतंत्रता सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता और स्वास्थ्य के अधीन है। इन दोनों अधिकारों का मूल भाव यह है कि राज्य सभी नागरिकों के साथ समान व्यवहार करे और उन्हें अपनी आस्था के अनुसार जीवन जीने की स्वतंत्रता प्रदान करे, ताकि भारत की विविधतापूर्ण और लोकतांत्रिक संरचना सुदृढ़ बनी रहे। वास्तव में मंदिर कोई विशेष वर्ग या प्रभावशाली और रसूखदार,बड़े लोगों के लिए ही नहीं, बल्कि सभी श्रद्धालुओं के लिए समान रूप से आस्था का स्थान होते हैं। ईश्वर के दरबार में अमीर-गरीब, नेता-अधिकारी या आम नागरिक के आधार पर कभी भी भेदभाव नहीं होना चाहिए। यदि केवल पद, रसूख या धन के कारण किसी को तुरंत या विशेष दर्शन कराया जाता है और इसके चलते आम भक्तों को घंटों प्रतीक्षा करनी पड़े, तो यह हमारे देश के संविधान के समानता के सिद्धांत के खिलाफ है। वैसे भी वीआईपी संस्कृति को मंदिरों में बढ़ावा देना एक गलत परंपरा ही है, क्योंकि इससे धार्मिक स्थलों का मूल उद्देश्य खत्म होता है और वे विशेषाधिकार का प्रतीक बन जाते हैं। प्रायः यह भी देखा जाता है कि सुरक्षा व्यवस्थाओं के नाम पर मंदिरों में आम दर्शन को रोक दिया जाता है अथवा घंटों घंटों तक के लिए इसे बाधित कर दिया जाता है। वास्तव में,सुरक्षा व्यवस्था के नाम पर आम दर्शन को रोकना या लंबे समय तक बाधित करने को उचित या जायज़ नहीं ठहराया जा सकता है। किसी भी धार्मिक स्थल (मंदिर) में दर्शन की व्यवस्था पारदर्शी, व्यवस्थित और न्यायसंगत होनी चाहिए। यदि किसी मंदिर में शीघ्र दर्शन या विशेष दर्शन के लिए शुल्क लिया जाता है, तो वह सीमित, नियमबद्ध और इस तरह होना चाहिए कि आम श्रद्धालुओं के अधिकार प्रभावित न हों।सच तो यह है कि पैसा या प्रभाव भगवान तक पहुंचने का कभी भी माध्यम नहीं बनना चाहिए। कुल मिलाकर, श्रद्धा में समानता ही सर्वोच्च सिद्धांत है, और किसी भी व्यवस्था से आम भक्तों के सम्मान और अधिकारों को ठेस नहीं पहुंचनी चाहिए। अंत में यही कहूंगा कि श्रद्धा में समानता ही सर्वोच्च है, क्योंकि ईश्वर के समक्ष सभी मनुष्य एक समान होते हैं, वहाँ कोई ऊँच-नीच या विशेषाधिकार नहीं होता। सच्ची भक्ति दिल की पवित्रता और आस्था से होती है, न कि पद, पैसा या पहचान से। जब श्रद्धा में भेदभाव किया जाता है, तो उसका उद्देश्य और पवित्रता दोनों प्रभावित होते हैं। समानता का भाव समाज में आपसी भाईचारे और सद्भाव को मजबूत करता है। मंदिर ही नहीं मस्जिद, चर्च या गुरुद्वारे-हर धार्मिक स्थल का मूल संदेश यही है कि सभी भक्त समान हैं। विशेष सुविधा या वीआईपी व्यवस्था इस भावना को कमजोर करती है। श्रद्धा तभी सार्थक है जब वह सबके लिए समान हो। इसलिए धार्मिक आस्था में समानता को सर्वोच्च मानना ही न्यायपूर्ण और मानवतावादी दृष्टिकोण है।

-सुनील कुमार महला

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