फिर बोतल से बाहर आया आरक्षण का जिन्न

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आरक्षण के पक्ष और विपक्ष में सियासी बयानबाजी से देश एक बार फिर सुलगने लगा है। जैसे ही चुनाव आते है आरक्षण को लेकर नेताओं के स्वर तेज हो जाते है। देश भर में चल रहे चुनावी माहौल के बीच भाजपा और कांग्रेस में आरक्षण को लेकर बयानबाजियां चल रही हैं। वोटों की फसल काटने का यह दुधारू और भोथरा हथियार बन गया है।

आरक्षण की गंगा में नहाने के लिए सभी लोग प्रयासरत है। लोकसभा चुनाव के दो चरण बीत चुके हैं, लेकिन इसी बीच आरक्षण का जिन्न एक बार फिर बोतल से बाहर आ गया है। कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने कहा कि भाजपा आरक्षण खत्म करना चाहती है तो भाजपा ने उन पर झूठ बोलने का आरोप लगाते कहा कि कांग्रेस ने दलितों और ओबीसी का आरक्षण छीनकर मुसलमानों को दे दिया। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने भी संविधान प्रदत आरक्षण का समर्थन किया है। संघ प्रमुख डॉ मोहन भागवत ने कहा कि संगठन भेदभाव व्याप्त रहने तक आरक्षण लागू रखने की वकालत करता है। मोदी के 400 पार के नारे के जवाब में विपक्ष ने इसे आरक्षण से जोड़ दिया है। हालांकि विपक्ष की इस मंशा को भांपकर बीजेपी और संघ सतर्क हो गया है।

यही वजह है कि संघ प्रमुख मोहन भागवत ने एक कार्यक्रम के दौरान कहा कि जब तक जरुरत होगी आरक्षण जारी रहेगा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह ने भी रविवार को अपनी चुनावी सभाओं के दौरान साफ कर दिया कि आरक्षण खत्म नहीं होने जा रहा है। सियासत में आरक्षण, ध्रुवीकरण और जातिवाद बेहद संवेदनशील मुद्दा है। चुनाव के दौरान राजनीतिक दल इसे ज मकर भुनाते हैं। संविधान निर्माताओं ने दलितों-पिछड़ों को समाज में बराबरी का दर्जा देने की मंशा से आरक्षण लागू किया था।

मगर संविधान की भावना पर सियासत भारी पड़ी। आरक्षण को लेकर देश में शुरू से ही दुविधा की स्थिति हो रही है। कोई सर्व मान्य हल नहीं निकलने के कारण आरक्षण को लेकर देश भ्रमजाल से नहीं निकल पा रहा है। संविधान की भावना कभी भी जाति आधारित आरक्षण की नहीं थी बल्कि सामाजिक व शैक्षणिक रूप से पिछड़े लोगों को बराबरी पर लाने की थी। जब संविधान सभा की ड्राफ्टिंग कमेटी ने स्वयं से पिछड़ा वर्ग शब्द जोड़ा था तो सवाल उठे थे। उस समय डॉ अंबेडकर ने सदस्यों को यह कह कर संतुष्ट कर दिया था कि ये भविष्य में सरकार के विवेकाधिकार पर छोड़ दिया जाना चाहिए।

सामाजिक-आर्थिक बराबरी का लक्ष्य हासिल करने के लिए संविधान में जिस आरक्षण की व्यवस्था की गई थी, वह लक्ष्य पूरा हुआ या नहीं, यह आज भी बहस का मुद्दा है। यह सही है आरक्षण ने कमजोर वर्ग में एक मलाईदार तबका भी पैदा किया है, जिसके कारण इसका पूरा लाभ जरूरतमंदों को नहीं मिल पाता, पर इसका मतलब यह नहीं कि आरक्षण की व्यवस्था ही खत्म कर दी जाए। दरअसल आरक्षण में व्याप्त विसंगतियां राजनीतिक पार्टियों की सोच का नतीजा हैं, जिनके लिए आरक्षण अपनी सत्ता बचाए रखने का औजार है। हमारे देश में आरक्षण पर राजनीति और दुष्प्रचार कब तक होता रहेगा। यह एक ज्वलन्त विषय है, जो अभी तक भी आम जनता की समझ से परे नजर आ रहा है। हाल ही में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने जो फैसला दिया है। उसे लेकर भी राजनीतिक दल भ्रम फैला रहे हैं। हालांकि सर्वोच्च न्यायालय ने पहले भी यह फैसला दिया था कि सरकारी नौकरी में प्रमोशन के अवसर पर आरक्षण देने के लिए बाध्यता नहीं है। मगर इस फैसले की आड़ में यह दुष्प्रचार किया जा रहा है कि सर्वोच्च न्यायालय आरक्षण को ही खत्म करने जा रहा है। न्यायालय के फैसले के साथ साथ यह भी प्रचारित किया जा रहा है कि केंद्र सरकार भी इसके लिए जिम्मेदार है।

अनेक प्रमुख राजनेता व राजनैतिक दल न्यायालय के इस फैसले को तीन तलाक, धारा 370 तथा नागरिकता संशोधन कानून से जोड़ रहे हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने संविधान निर्माताओं की उस व्यवस्था व भावना को उल्लेखित किया है, जिसके अंतर्गत आरक्षण को मूलभूत अधिकार नहीं माना गया है। यह भी सच है कि सामाजिक न्याय के अपने लक्ष्य को पूरा करने के लिए भारत के संविधान में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षण की व्यवस्था दी हुई है। साथ ही सच्चाई यह भी है कि स्वयं संविधान निर्माता इस व्यवस्था को लंबे काल तक चलाने के लिए पक्ष में नहीं थे।

गौरतलब है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था और सामाजिक न्याय बराबरी की बेसिक चीजें हैं। आरक्षण उस तक पहुंचने का एक तरीका भर है, मगर कोई मौलिक अधिकार नहीं है। आरक्षण को तब तक ही लागू रखा जाना आवश्यक प्रतीत होता है। जब तक कि इस प्रकार के आरक्षण के लिए धरातल पर यथोचित आधार हैं। मगर हमारे यहां मामला सिर्फ जातिगत आरक्षण के आधार पर टिका हुआ है। यद्यपि जातिगत आरक्षण जारी है।

शिक्षा और नौकरी में प्रवेश के स्तर पर आरक्षण अभी तक कायम है। देश के सर्वोच्च न्यायालय ने सिर्फ और सिर्फ इस बात पर निर्णय दिया है कि प्रमोशन के दौरान आरक्षण दिया जाना कोई आवश्यक नहीं। इसके बावजूद पूर्वाग्रह तथा दुष्प्रचार सिर्फ स्वार्थ को राजनीति है और सामाजिक व्यवस्था के लिए यह सब विषम साबित होता जा रहा है।

-बाल मुकुन्द ओझा

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