आदिवासी वोट बैंक पर एक बार फिर सियासत गरमा गई है। लोकसभा चुनावों के मधे नज़र सियासी दल जातीय और सामुदायिक वोट बैंक को साधने के लिए जी तौड़ प्रयासों में जुटे हैं। इनमें एक वोट बैंक आदिवासी समाज का है, जिसके बारे में कहा जाता है यह सत्ता की संजीवनी है।
इस वोट बैंक को साधने के लिए भाजपा और कांग्रेस सहित क्षेत्रीय पार्टियों ने अपने-अपने दांव लगाने शुरू कर दिए है। सभी राजनीतिक पार्टियां स्वयं को आदिवासियों की सच्ची हितैषी बता रही है। यह भी कहा जाता है आदिवासी वोटरों का झुकाव जिस पार्टी की ओर होता है, वही देश पर राज करता है।
आगामी लोकसभा चुनाव में फतह हासिल करने के लिए भाजपा और कांग्रेस सहित सभी राजनीतिक पार्टिया प्रयासरत है। चुनाव में जातिगत वोटों का महत्वपूर्ण स्थान है। इसे प्राप्त करने के लिए सियासी दलों ने एड़ी चोटी का जोर लगा रखा है। सत्तारूढ़ भाजपा की नजर देश की 10 प्रतिशत आदिवासी आबादी पर है।
पिछले चुनाव में आदिवासियों की आरक्षित 47 सीटों में भाजपा ने 31 सीटें जीती हैं। 2014 में भी 28 सीटें भाजपा को मिली थीं। आदिवासियों के लिए लोकसभा की 47 सीटें आरक्षित हैं। एनडीए और इंडिया दोनों गठबंधनों को सत्ता के शीर्ष तक पहुंचाने में इनका बड़ा योगदान हो सकता है।
बीते दो चुनावों से इनपर भाजपा की मजबूत पकड़ है। कभी इन पर कांग्रेस का प्रभुत्व था। झारखंड मुक्ति मोर्चा समेत कई दल तो आज भी आदिवासी अस्मिता की राजनीति करते हैं।
भाजपा ने द्रोपदी मुर्मू को देश के सर्वोच्च पद राष्ट्रपति पर पहुंचा कर आदिवासी मतों पर अपना दावा जताया है। आदिवासी अरसे से अपने अकूत संसाधनों का दोहन देखती रही है और पिछड़ापन तथा कुपोषण से बुरी तरह ग्रस्त रही है। आदिवासी अपनी परंपरा और संस्कृति की रक्षा के साथ विकास के नाम पर अपने रहवास की अकूत जल, जंगल, जमीन की संपदा की रक्षा के लिए लड़ते भी रहे हैं।
आजादी के बाद के शुरुआती दशकों में आदिवासियों का झुकाव स्वाभाविक तौर पर कांग्रेस की तरफ रहा। फिर, कुछ आदिवसी इलाकों में सोशलिस्टों और कम्युनिस्टों का भी वर्चस्व रहा। कुछ इलाके अति-वामपंथ से भी प्रभावित रहे और 1990 तथा 2000 के बाद के दशकों में माओवादी असर इतना व्यापक हुआ कि पिछले कुछ दशकों से अति- वामपंथी रुझान की वजह से इसे रेड कॉरीडोर कहा जाने लगा था।
लेकिन, पिछले डेढ़ दशक से कम से कम वोट के मामले में भाजपा की ओर आदिवासी रुझान मुड़ा तो कई राज्यों में पार्टी को सत्ता भी मिली। राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ विधान सभा चुनावों में भाजपा की जीत में आदिवासियों की बड़ी भूमिका रही है। एक सरकारी रिपोर्ट बताती है कि देश में 50 प्रतिशत या इससे ज्यादा जनजातीय आबादी वाले कुल 36,428 गांव हैं।
आधी से ज्यादा आदिवासी आबादी वाले गांवों में मप्र देश में पहले नंबर पर है। एमपी के 7307 गांवों में आदिवासियों की आबादी 50 प्रतिशत से ज्यादा है। दूसरे नंबर पर राजस्थान में 4302 गांवों में 50 प्रतिशत आबादी आदिवासियों की है।
इसके बाद छत्तीसगढ़ में 4029, झारखंड में 3891, गुजरात में 3764, महाराष्ट्र में 3605 गांवों में आधे से ज्यादा आदिवासी रहते हैं। छल, प्रपंच और कपट की सियासत से दूर देश की आदिवासी आबादी आज भी रोजी रोटी के लिए जूझ रही है।
आदिवासी आबादी आज़ादी के 76 साल बाद भी आधुनिक सभ्यता और प्रगति से दूर रहकर जंगलों में निवास करती है। जमीन होते हुए भी जमीन हीन है। आज भी उनका खाना मोटा है। जंगल के इलाकों में रहने के कारण सरकार संचालित विकास योजनाएं इन तक नहीं पहुंच पाती। केंद्र और राज्य सरकार की रोजगार गारंटी योजना सहित दूसरी योजनाओं से ये आदिवासी पूरी तरह दूर हैं।
पौष्टिक भोजन के आभाव में कुपोषण और बीमारी इनके लिए जानलेवा साबित हो रही है। मानव की मूल जरुरत साफ पानी भी इन लोगों को उपलब्ध नहीं होता।
बाल मुकुन्द ओझा