बिहार में फिर गूंजा परिवारवाद का शंखनाद

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बिहार में परिवारवाद का भूत एक बार फिर हिलोरे लेने लगा है। राज्य की चुनावी सियासत इन दिनों परिवार और परिवारवाद के इर्द-गिर्द घूम रही है। राजनीतिक पार्टियों में परिवारवाद पर सियासी संग्राम छिड़ गया है। एक दूसरे पर परिवारवादी होने के आरोप जड़े जाने लगे है। साथ ही स्वयं को पाक साफ़ बताकर दूसरों पर दोषारोपण किया जा रहा है। कई राजनीतिक विश्लेषक परिवारवाद और वंशवाद की परिभाषा अलग अलग बताते है। इन लोगों की मान्यता के अनुसार यदि संघर्ष के रास्ते कोई भाई अपनी जगह सियासत में बनाकर आता है तो उसे परिवारवाद का दोषी ठहराना उचित नहीं होगा। वहीँ दूसरे पक्ष के विश्लेषक मानते है कि परिवार के सहारे आगे बढ़ना अनुचित है। भारत के लोकतंत्र को समझने वाले लोगो का एक दृष्टिकोण ये भी है की इस देश में वंशवाद और राजशाही को लोकतंत्र का जामा ओढ़ाया गया है। राजशाही के जमाने में और लोकतंत्र में फर्क सिर्फ इतना है कि तब राजा ही अपने बेटे को उत्तराधिकारी घोषित करता था अब वो जनता से घोषित करवाता है। बहरहाल आम जनता की नजर में परिवारवाद और वंशवाद में कोई ज्यादा फर्क नहीं है। लोकतंत्र के लिए यह हितकारी नहीं है। विधानसभा चुनाव में 42 उम्मीदवार ऐसे हैं, जिनके परिवारवाले पहले सांसद या विधायक रह चुके हैं। सबसे चौंकाने वाली चर्चा पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी की पार्टी हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा की हो रही है। जीतन राम मांझी ने अपने हिस्से की छह में से पांच सीटों पर बहू, समधन, दामाद, भतीजे को चुनावी मैदान में उतार दिया है। परिवारवाद की खिलाफत करने वाली भाजपा के 101 में से 11 उम्मीदवार किसी न किसी राजनीतिक परिवार से जुड़े हैं। जेडीयू ने 101 सीटों में से 5 पर परिवारवादी उम्मीदवार उतारे हैं। चिराग पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी ने 29 में से 8 टिकट अपने परिवार या करीबी रिश्तों वालों को दिए हैं। महागठबंधन में सबसे ज्यादा परिवारवाद का असर राजद में नजर आ रहा है। लालू प्रसाद यादव के बेटे तेजस्वी यादव और तेज प्रताप यादव तो पहले से सक्रिय हैं, लेकिन इस बार पार्टी ने करीब 10 ऐसे उम्मीदवार उतारे हैं जो किसी न किसी राजनीतिक परिवार से आते हैं। बिहार में परिवारवाद को लेकर ‘एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स के मुताबिक , बिहार में कुल 27 प्रतिशत मौजूदा सांसद-विधायक वंशवादी पृष्ठभूमि से आते हैं। यानी लगभग हर चौथा जनप्रतिनिधि किसी राजनीतिक घराने से है। देशभर के 5,203 सांसदों और विधायकों में 1,106 (21 प्रतिशत ) परिवारवाद से जुड़े हैं। इस सूची में बिहार तीसरे स्थान पर है। बिहार में 360 मौजूदा सांसदों, विधायकों और विधान परिषद सदस्यों में से 96 (27 प्रतिशत) वंशवादी पृष्ठभूमि से हैं। बिहार विधानसभा के मौजूदा जनप्रतिनिधियों में 27 प्रतिशतवंशवादी हैं। वहीं, 40 लोकसभा सांसदों में से 15 सांसद (37.5 प्रतिशत ) और राज्यसभा में 16 में से 1 सांसद राजनीतिक परिवार से आते हैं। यह डाटा साबित करता है कि टिकट बांटते समय नेताओं को कार्यकर्ताओं से ज्यादा परिवार के सदस्यों की याद आती है। चुनाव आते ही नेताओं के बेटा बेटी और रिश्तेदार सत्ता में संभावित बंटवारे के लिए सक्रीय हो जाते है। इसके लिए पार्टी की टिकट जरुरी है। यही टिकट उन्हें अपने परिवार के सहारे सत्ता की सीढ़ियों तक पहुँचाने का काम करती है। बिहार विधानसभा चुनाव की दुंदुभी बज चुकी है। प्रधान मंत्री सहित सभी पार्टियों के नेताओं का चुनाव प्रचार शुरू हो गया है। इस प्रदेश में परिवारवाद महत्वपूर्ण चुनावी मुद्दा बन चुका है। सभी पार्टियां परिवारवाद की धमक से उबल रही है। एनडीए हो या इंडिया उर्फ़ महागठंबंधन कोई भी परिवारवाद से अछूता नहीं है। सभी सियासी पार्टिया एक-दूसरे पर परिवारवाद के बहाने हमला भी कर रहे हैं, लेकिन खास बात यह है कि शायद ही कोई राजनीतिक दल इससे अछूता है। बिहार की राजनीति में परिवारवाद की जड़ें बहुत गहरी हो चुकी हैं। आरजेडी, भाजपा, लोक जनशक्ति, जेडी यू, हम और कांग्रेस पार्टी आदि सभी दलों में परिवारवाद का बोलबाला है। भारत का लोकतंत्र भी अजब निराला है। मतदाता चाह कर भी जाति और क्षेत्र की राजनीति के भंवर से आजादी के 78 वर्षों के बाद भी निकल नहीं पाए है। लोकतंत्र ने आज पूरी तरह परिवारतंत्र का जामा पहन लिया है। बड़े बड़े आदर्शों की बात करने वाले नेता परिवारमुखी होगये है। देश वंशवाद से कब मुक्त होगा यह बताने वाला कोई नहीं है। इस गंभीर और संक्रामक बीमारी का इलाज केवल देश का मतदाता ही कर सकता है।

-बाल मुकुन्द ओझा

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