भगवान शंकर के श्रीमुख से श्रीराम जन्म प्रसंग की दिव्य कथा

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महादेव के श्रीमुख से जो श्रीराम जन्म के प्रसंग की मधुर कथा प्रवाहित हो रही है, वह अत्यंत रसभरी और आनंददायिनी है। जगदीश्वर शिव कहते हैं कि श्रीराम के पावन अवतार के एक नहीं, अनेकों कारण हैं। वे कारण इतने विचित्र और दिव्य हैं कि उनका वर्णन करना भी शब्दों की पहुँच से परे है—

“राम जन्म के हेतु अनेका। परम विचित्र एक ते एका।।”
यह सत्य है कि परम सत्ता के सभी अवतारों की कथा को शब्दों की सीमित मर्यादा में बांधना असंभव है। यहाँ तक कि भक्तवत्सल भगवान शंकर भी स्वयं को श्रीराम की अवतार कथा का पूर्ण रूप से गान करने में असमर्थ और निर्बल मानते हैं। इसका कारण यह है कि किसी एक कारण को ही अवतार का एकमात्र हेतु कह देना उचित नहीं होगा, क्योंकि ईश्वरीय लीला के रहस्य अत्यंत गहन होते हैं। इसीलिए, भगवान शंकर ने कुछेक प्रमुख जन्मों की गाथा कहने की ही तैयारी की, जिसकी अनुमति वे भगवती भवानी से लेते हैं—

“जन्म एक दूई कहऊँ बखानी। सावधान सुनु सुमति भवानी।।”
अर्थात्, हे सुंदर बुद्धि वाली भवानी! मैं उन प्रभु के दो-एक जन्मों का विस्तार से वर्णन करता हूँ। तुम इसे पूर्ण सावधानी और एकाग्र मन से सुनो।

जय और विजय का अहंकार तथा शाप
भगवान शंकर कथा को आगे बढ़ाते हुए कहते हैं कि श्री हरि (भगवान विष्णु) के अत्यंत प्रिय दो द्वारपाल हैं, जिनके नाम जय और विजय हैं। इन दोनों को संसार में सब कोई जानता है—

“द्वारपाल हरि के प्रिय दो। जय अरु बिजय जान सब कोऊ।।”
किंतु इन दोनों के मन में अहंकार ने प्रवेश कर लिया। वे इस बात का गर्व करने लगे कि वे कोई सामान्य द्वारपाल नहीं हैं, अपितु साक्षात् भगवान विष्णु के द्वार पर नियुक्त हैं। इस मद में चूर होकर उन्हें यह भ्रम हो गया कि वे जिसे चाहें, उसे भगवान विष्णु से मिलने से रोक सकते हैं, भले ही वह व्यक्ति कितना भी बलशाली या महान क्यों न हो। उनके मन में यह भाव उत्पन्न हो गया कि उनके सामने किसी की कोई प्रभुता नहीं है। उन्होंने यह मान लिया कि वैकुण्ठ धाम के भीतर भले ही भगवान विष्णु का राज चलता हो, किंतु बाहर के क्षेत्र में तो केवल उनकी ही प्रभुसत्ता है। निस्संदेह, यह उनका गहरा अहम् ही था, जिसने उन्हें यह सोचने पर विवश किया कि एक द्वारपाल होते हुए भी वे किसी को भगवान विष्णु से मिलने से वंचित कर सकते हैं। अहंकार के वशीभूत होकर वे इस अटूट सत्य को भूल गए थे कि भगवान और भक्त का सम्बन्ध ठीक वैसा ही है जैसा अग्नि और उसके ताप का होता है। क्या आज तक कोई अग्नि से उसके ताप को पृथक कर पाया है? या कोई जल से उसकी तरलता, शीतलता अथवा अग्निशमन का सामर्थ्य छीन पाया है? भक्त भी अपने भगवान से ठीक इसी प्रकार एकाकार होता है। जैसे मिठास लड्डू में समाई होती है—क्या किसी ने कभी बिना मिठास का लड्डू देखा है? ठीक उसी प्रकार, भक्त को कोई भगवान से विलग कर सके, ऐसी कोई संभावना ही नहीं है। किंतु भ्रम का क्या! जब वह उत्पन्न हो ही जाता है, तब जिसे भ्रम हो गया हो, उसे वास्तविकता भला कैसे दिखाई दे सकती है? उसे तो केवल वही दिखाई देता है, जो वह देखना चाहता है। एक दिन जय और विजय ने देखा कि सनकादि ऋषि, जो ब्रह्माजी के मानस पुत्र हैं, अपनी मस्त और सहज चाल में वैकुण्ठ द्वार की ओर चले आ रहे हैं। दोनों द्वारपालों को यह आशा तो नहीं थी कि सनकादि ऋषि उनसे आज्ञा लेकर ही वैकुण्ठ में प्रवेश करेंगे, किंतु उनके अहंकार को गहरी ठेस तब लगी, जब सनकादि ऋषि ने जय और विजय दोनों को बिना पूछे ही भीतर प्रवेश करना आरंभ कर दिया। सनकादि ऋषियों का ऐसा कोई भाव नहीं था कि वे किसी को नीचा दिखाएँ। वास्तव में, वे प्रभु के प्रेम-भाव में इस प्रकार मस्त थे कि उन्हें यह भान ही नहीं रहा कि उनके और भगवान के बीच कोई द्वारपाल भी हैं। क्योंकि भक्त और भगवान के मध्य तो केवल प्रेम ही होता है। यदि प्रेम नहीं है, तो उसके पीछे अहंकार ही होता है, जो भक्त व भगवान के मध्य दीवार बनकर आन खड़ा होता है। जय और विजय भले ही भगवान के द्वारपाल थे, किंतु भगवान से उनकी दूरी उतनी ही थी, जितनी सागर के दो किनारों के मध्य होती है। सनकादि ऋषियों की यह सहज प्रेम वाली अवस्था उन्हें अप्रिय लगी। वे क्रोध से अग्नि के समान प्रज्वलित हो उठे और ऋषि सनकादि को अपशब्द कहकर उनका अपमान करने लगे। उन्हें लगा कि सनकादि ऋषि उनके आगे हाथ-पाँव जोड़ेंगे और विनती करेंगे। किंतु सनकादि ऋषि ने कुछ नहीं कहा। वे किसी गहरे सागर की भाँति स्थिर और शांत ही रहे। उन्हें इस प्रकार शांत देखकर दोनों भाई और भी भड़क गए। वे समझ ही नहीं पाए कि सनकादि ऋषि कोई प्रतिक्रिया क्यों नहीं दे रहे हैं। इसी अज्ञानता की खाई में गिरते हुए उन्होंने सनकादि ऋषि के अपमान करने की सभी हदें पार कर दीं और सारी मर्यादाओं को लांघ दिया। तब सनकादि ऋषि ने देखा कि इन द्वारपालों का आचरण किसी भी प्रकार से देव-भाव वाला नहीं है, अपितु नख से सिर तक ये पूर्णतः राक्षस ही हैं। तो ऐसे राक्षसी स्वभाव वाले लोगों का भला भगवान के परम धाम में क्या कार्य! तब क्रुद्ध होकर सनकादि ऋषि ने दोनों भाईयों को श्राप दिया कि “जाओ, तुम दोनों राक्षस हो जाओ!” इस प्रकार, ऋषि के श्राप से विवश होकर दोनों भाई अगले जन्म में हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष के रूप में राक्षस बनकर मृत्युलोक पर पैदा हुए।

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