नकली दवाएं बनाना और बेचना केवल अपराध नहीं, पाप है।यह वह कुकर्म है जो जीवन देने के नाम पर मृत्यु बाँटता है।लाभ की लालसा जब संवेदनाओं पर भारी पड़ती है, तब इंसानियत मर जाती है।बीमार की आशा को छलना मानवता का सबसे बड़ा अपमान है।ऐसे स्वार्थी लोग समाज और मानवता दोनों के शत्रु हैं।दवा नहीं, ज़हर बनाकर वे जीवन के अधिकार का उपहास उड़ाते हैं। धन के पीछे भागता मनुष्य कब नैतिकता से इतना गिर गया? सोचिए, ऐसा स्वार्थ और लालच हमें अंततः कहाँ ले जाएगा? बहरहाल, कफ सिरप (खांसी की दवाई) सामान्यतः खांसी या ज़ुकाम के लक्षणों को कम करने के लिए बच्चों और वयस्कों को दी जाती है, लेकिन यह बहुत ही अफसोसजनक है कि कफ सिरप में मिलावट या अशुद्धता के कारण गंभीर साइड इफेक्ट्स या मृत्यु तक हो रहीं हैं। इस क्रम में हाल ही में हमारे देश में कफ सिरप संबंधी शिकायतों का एक बार फिर से उठना न केवल दुखद, बल्कि शर्मनाक भी है।इस संबंध में मध्य प्रदेश और राजस्थान से जो खबरें आईं हैं, उन्हें हल्के में नहीं लिया जा सकता है। मीडिया में उपलब्ध जानकारी के अनुसार कफ सिरप के कारण कम-से-कम 9 से 12 बच्चों की मौतें हुईं हैं, और इनमें से अधिकतर बच्चों में गुर्दे संबंधी समस्याएँ देखने को मिलीं हैं।परीक्षण में पाया कि एक कफ सिरप में डीईजी स्तर अनुमत सीमा से अधिक था। यहां पाठकों को जानकारी देना चाहूंगा कि डायथिलीन ग्लाइकॉल (डीईजी) और एथिलीन ग्लाइकॉल (ईजी) औद्योगिक रसायन हैं, जिनका उपयोग अक्सर अवशुद्ध या नीचे-स्तरीय ‘ग्लाइकोल’ स्रोतों में होता है। जब इन्हें दवा निर्माण में गलती से या धोखाधड़ी से शामिल कर दिया जाता है, तो ये गुर्दे (किडनी) को गंभीर रूप से नुकसान पहुँचा सकते हैं। कहना ग़लत नहीं होगा कि आज दवाओं की उत्पादन प्रक्रिया में विनिर्माण दोष जैसे कि कच्चे माल की शुद्धता की जांच न होना, प्रोसेस कंट्रोल का नाकाफी होना, दवाओं के प्रयोग से पहले उनका ठीक ढंग से परीक्षण नहीं किया जाना,दवाओं पर लेबलिंग त्रुटियाँ और गलत जानकारी, कमज़ोर दवा विनियमन जैसे कारणों से दवाओं के हानिकारक प्रभाव हो सकते हैं। हाल ही में कफ सिरप के क्रम में संबंधित राज्य को सरकार ने उस सिरप की बिक्री पर रोक लगाने का आदेश दिया, यह अच्छी बात है। उल्लेखनीय है कि इस संबंध में हाल ही में केंद्र ने भी बच्चों (विशेषकर 2 वर्ष से कम आयु) को बिना जाँच के कफ सिरप नहीं देने की एक एडवाइजरी भी जारी की है। बताया गया है कि बच्चों में खांसी जुकाम आमतौर पर अपने आप ठीक हो जाते हैं, ऐसे में आराम, हाइड्रेशन व सहायक उपचार को प्राथमिकता दी जानी चाहिए।सामान्यतया 5 साल से कम उम्र के बच्चों में भी दवाओं का उपयोग नहीं करने की बात कही गई है। इतना ही नहीं, बड़ी उम्र के बच्चों में भी दवा केवल डॉक्टर की सलाह पर समुचित खुराक दिए जाने की बात कही गई है। इसके साथ ही एक साथ कई दवाओं के कॉम्बिनेशन से बचने और दवा कम से कम अवधि तक दिए जाने तथा सभी स्वास्थ्य संस्थानों को केवल प्रमाणित गुणवत्ता वाली दवाएं ही खरीदने हेतु कहा गया है। बहरहाल, मध्यप्रदेश और राजस्थान में अगर ये मौतें नकली या खराब कफ सिरप की वजह से हुई हैं, तो फिर दोषियों को किसी भी हाल और परिस्थितियों में छोड़ना नहीं चाहिए। वास्तव में, दोषी पाए जाने वालों को सख्त से सख्त सज़ा दी जानी चाहिए और इस संबंध में सरकार को पारदर्शी जाँच, और जवाबदेही सुनिश्चित करने की आवश्यकता है। बहरहाल, कफ सिरप की शिकायत का एक महत्वपूर्ण पहलू यह है कि ये जेनेरिक श्रेणी की है और इसका वितरण सरकारी स्वास्थ्य केंद्रों के जरिए हुआ है, वास्तव में यह बहुत ही चिंताजनक व संवेदनशील है। चिंताजनक व संवेदनशील इसलिए क्यों कि यहां सवाल यह उठता है कि क्या हमारे यहां जेनेरिक दवाओं की गुणवत्ता के साथ समझौता किया जा रहा है? सवाल यह भी उठता है कि क्या सरकारी स्तर पर होने वाली खरीद में नकली या फर्जी दवाओं को खपाया जा रहा है? कहना ग़लत नहीं होगा कि नकली और मिलावटी दवाएं मानव जीवन के लिए गंभीर ख़तरा हैं।इनसे रोग ठीक होने के बजाय और बढ़ सकते हैं। फर्जी दवाएं लोगों के स्वास्थ्य और भरोसे दोनों को चोट पहुँचाती हैं।गुणवत्ता विहीन दवाओं का असर न के बराबर या हानिकारक होता है। वास्तव में,दवा निर्माण और वितरण पर कड़ी निगरानी से ही समाज और देश को सुरक्षित रखा जा सकता है। ध्यातव्य है कि आज जेनेरिक दवाओं का वितरण करने वाले औषधि केंद्रों की संख्या पूरे देश में लगातार बढ़ रही है। गौरतलब है कि भारत ने सरकार द्वारा ‘प्रधान मंत्री भारतीय जनऔषधि योजना की शुरुआत की है, जिसके अंतर्गत सस्ते जेनेरिक दवाओं की दुकानों की संख्या बढ़ाई जा रही है। आंकड़े बताते हैं कि 2023–24 तक इस योजना के तहत 10,006 दुकानें थीं और विक्रय (सेल्स) ₹1,470 करोड़ रही। हमारे देश में 28 फरवरी 2025 तक जन औषधि केंद्रों की संख्या 15,057 थी तथा 30 जून 2025 तक कुल 16,912 जन औषधि केंद्र खोले जा चुके हैं।लक्ष्य है कि मार्च 2027 तक यह केंद्रों की संख्या 25,000 हो जाए, यह काबिले-तारीफ है। जन औषधि केंद्रों के फायदे यह हैं कि इनसे देश में सस्ती दवाओं की उपलब्धता होती है। जन औषधि केंद्र भारत में निर्मित जेनेरिक दवाओं की बिक्री को प्रोत्साहित करते हैं, जिससे ‘मेक इन इंडिया’ और आत्मनिर्भर भारत अभियान को बल मिलता है। इनसे स्वास्थ्य सेवाओं की पहुंच में इजाफा होता है।देश में रोज़गार और उद्यमिता को प्रोत्साहन मिलता है, लेकिन जन औषधि केंद्रों में मिलने वाली सभी दवाएँ डब्ल्यू एच ओ-जीएमपी प्रमाणित लैबों में परीक्षण के बाद ही उपलब्ध होनी चाहिए, ताकि गुणवत्ता पर सवाल न उठने पाएं। बहरहाल, कफ सिरप संबंधी शिकायतों पर राजस्थान सरकार ने मुस्तैदी से कदम उठाए हैं। अधिकारियों ने जांच के आदेश दिए हैं और संबंधित दवा के 22 बैचों पर प्रतिबंध लगाए हैं। यहां ध्यान देने की बात है कि सिरप की सुरक्षा साबित करने की कोशिश में एक सीनियर डॉक्टर ने दवा का सेवन किया और वे बेहोश हो गए। हालांकि, डाक्टर के बेहोश होने के दूसरे कारण भी हो सकते हैं, लेकिन अधिकारियों के मन में शक ने कहीं न कहीं जरूर जन्म लिया है और इस शक को अंजाम तक पहुंचाना चाहिए। वास्तव में आज जरूरत इस बात की है देश में समय-समय पर दवाओं की गुणवत्ता, मानकों की जांच की जानी चाहिए। दवाओं के साथ खिलवाड़ से बड़ा अपराध कोई दूसरा हो नहीं सकता। आज दवा निर्माण और वितरण में पारदर्शिता व सख्त निगरानी जरूरी है, क्यों कि आज आदमी अपने स्वार्थों को पूरा करने के लिए दवाओं तक में मिलावट/नकली दवाओं का निर्माण, लापरवाही कर रहा है और इसके पीछे बड़े रैकेट काम कर रहे हैं। इन रैकेट्स को पकड़ा जाना बहुत जरूरी है। वास्तव में, जनस्वास्थ्य की रक्षा हेतु दवाओं से जुड़ी हर लापरवाही पर कठोर से कठोर दंड होना चाहिए।सच तो यह है कि ऐसे अक्षम्य अपराधियों को कतई छोड़ना नहीं चाहिए। गौरतलब है कि सीकर जिले में पांच साल के बच्चे और भरतपुर में दो साल के बच्चे की सिरप पीने से मौत हुई है। मध्य- प्रदेश में ज्यादा बच्चों की मौत हुई है। यहां पाठकों को बताता चलूं कि कफ सिरप की शिकायत का मामला तीन साल पहले भी सामने आया था। कथित रूप से अफ्रीकी देशों में भारतीय कफ सिरप की वजह से 50 से ज्यादा बच्चों की मौत बताई गई थी। उस समय भी भारत सरकार ने इस पर कड़े कदम उठाए थे। कहना ग़लत नहीं होगा कि उससे भी कड़े कदम उठाए जाने की आज जरूरत है। आंकड़े और रिपोर्ट्स बतातीं हैं कि वित्तीय वर्ष 2024-25(भारत सरकार द्वारा संसद में) कुल 1,16,323 ड्रग सैंपल्स की जांच की गई, जिनमें से 3,104 दवाएं ‘नोट आफ स्टैंडर्ड क्वालिटी'(एन एस क्यूं) पाईं गईं तथा 245 दवाएं दोषपूर्ण / मिलावटी रहीं और इस संबंध में अभियोग (प्रोसिक्यूशन्स) की संख्या 961 रहीं।यह बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण बात है कि नकली दवाओं के मामले में चीन के साथ भारत का भी नाम लिया जाता है। एक अनुमान के मुताबिक, भारत में बेची जाने वाली 5 से 25 प्रतिशत दवाएं नकली या घटिया हो सकती हैं। देश के जो इलाके नकली दवाओं के लिए जाने जाते हैं, वहां अब युद्ध स्तर पर अभियान चलाने की जरूरत है। बहरहाल, केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने पीड़ित बच्चों को दी गई दवाओं के सेंपल की जांच रिपोर्ट के आधार पर यह माना है कि उनमें डायथिलीन ग्लाइकोल (डीईजी) या एथिलीन ग्लाइकोल (ईजी) जैसे घातक रसायन मौजूद नहीं हैं, जबकि मध्यप्रदेश के छिंदवाड़ा में किडनी फेल होने के कारण ही बच्चों की मौत हुई है। बीते 3 अक्टूबर को भी मध्यप्रदेश में एक बच्चे की अस्पताल में मौत हुई। बहरहाल, राजस्थान राज्य सरकार की निःशुल्क दवा योजना में सप्लाई की गई डेक्स्ट्रोमेथॉर्फन कफ सिरप को सरकार ने जांच के बाद क्लीन चिट दे दी है। हालांकि, यह सिरप बच्चों के लिए अनुशंसित नहीं है। सीकर और भरतपुर के तीन बच्चों की मौत के बाद चिकित्सा विभाग ने कंपनी की ओर से आपूर्ति की गई दवा के सैंपलों की जांच करवाई थी, जिसमें दूषित होने व डीईजी, ईजी का संभावित स्रोत हानिकारक प्रोपाइलीन ग्लाइकोल नहीं पाया गया। इधर, छिंदवाड़ा के परासिया क्षेत्र में कफ सिरप लेने के बाद किडनी फेल होने से अस्पताल में भर्ती एक और बच्चे ने शुक्रवार को दम तोड़ दिया। मरने वालों की संख्या नौ हो गई, जबकि 12 अन्य बच्चे गंभीर हालत में नागपुर और छिंदवाड़ा के अस्पतालों में मौत से संघर्ष कर रहे हैं। सभी बच्चों की उम्र 5 वर्ष से कम है। मीडिया में उपलब्ध जानकारी के अनुसार मृत बच्चों के घर से कोल्ड्रिफ और नेक्सट्रॉस-डीएस सिरप मिले थे। मध्यप्रदेश में कफ सिरप लेने के बाद किडनी फेल होने से नौ बच्चों की मौत के बाद दवा सेंपल की लेबारेटरी जांच को लेकर विरोधाभास भी सामने आया। केंद्र सरकार ने कहा है कि मध्यप्रदेश में मरने वाले बच्चों के पास मिली दवा के सेंपल की जांच में प्रतिबंधित घातक रसायन डीईजी/ईजी की पुष्टि नहीं हुई है। उधर, छिंदवाड़ा के सीएमचओ ने यह बात कही कि दवाओं के सेंपल की जांच रिपोर्ट अभी प्राप्त नहीं हुई है। इन सभी के बीच, बहरहाल, यह भी एक तथ्य है कि किसी भी दवा की क्रिया अथवा प्रतिक्रिया मरीज के शरीर, उम्र, लिंग, जेनेटिक्स पर निर्भर करती है तथा हर दवा की खुराक उम्र के अनुसार बदलती है और कुछ दवाएं तो बच्चों को दी ही नहीं जा सकती हैं। कहना ग़लत नहीं होगा कि दवा देने का समय, दवा देने का रूट/माध्यम तथा शरीर में पहले से कोई बीमारी होना भी दवा की क्रिया-प्रतिक्रिया को प्रभावित करता है। वास्तव में
इन सभी घटकों में जरा से बदलाव पर भी दवाओं के दुष्प्रभाव झेलने पड़ सकते है। दवा निर्माण, वितरण और निरीक्षण की पूरी प्रक्रिया में खामियां नहीं होनी चाहिए, क्यों कि दवाएं सीधे तौर पर जीवन से जुड़ी हैं। हाल ही में जो त्रासदी हुई है,वह हमें तीन साल पहले यानी कि साल 2022 में गांबिया और उज्बेकिस्तान में कथित भारतीय सिरप से हुई मौतों की याद दिलाती है। यहां यक्ष प्रश्न यह उठता है कि क्या हमने उससे कुछ सीखा? ऐसी घटनाएं देश की दवा-नियामक व्यवस्था पर कहीं न कहीं गहरे सवाल खड़े करती है। आज हमारे देश में दवाओं की जांच और निरीक्षण जैसे औपचारिकता बनकर रह गया है। ऐसे भी दृष्टांत हैं, जिनमें गुणवत्ता परीक्षण में विफल रही दवाएं सरकारी योजना के तहत फिर से वितरित की जा रही हैं। ऐसे में, सवाल यह भी है कि सरकारी अस्पतालों में मुफ्त बांटी जाने वाली दवाएं कितनी सुरक्षित और ठीक हैं ? वास्तव में यह कहीं न कहीं यह तंत्रगत भ्रष्टाचार और संवेदनहीनता की ओर ही इशारा करता है। भारत धीरे-धीरे दुनिया की फार्मेसी हब बनने की ओर अग्रसर है, ऐसे में ऐसी त्रासदियों से तो देश की छवि को कहीं न कहीं आघात ही पहुंचेगा। आज जरूरत इस बात की है कि दवा उद्योग और नियामक संस्थाओं की जवाबदेही सुनिश्चित की जाए। वहीं डॉक्टरों और फार्मासिस्टों को भी बच्चों को कोई सिरप या एंटीबायोटिक दवा देने से पहले पर्याप्त सतर्कता बरतनी चाहिए। दवाओं के मामलों में कोई भी कार्रवाई सिर्फ प्रतीकात्मक नहीं होनी चाहिए, बल्कि इससे व्यवस्था में ठोस बदलाव आने चाहिए। हाल फिलहाल दोनों राज्यों में त्रासदी के बाद नीति नियामकों में जो सक्रियता दिख रही है, उम्मीद की जा सकती है कि उसके ठोस नतीजे निकलेंगे, ताकि ऐसे हादसे की पुनरावृत्ति न हो।
-सुनील कुमार महला