संसद का 21 जुलाई से शुरू हुआ मानसून सत्र बिहार में मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण (SIR) के मुद्दे पर विपक्ष के जोरदार हंगामे और विरोध प्रदर्शनों की भेंट चढ़ गया। लोकसभा और राज्यसभा दोनों ही सदनों में कामकाज बुरी तरह प्रभावित हुआ और अधिकांश बहुमूल्य संसदीय समय नारेबाजी और व्यवधान के कारण नष्ट हो गया। बताया जाता है भारी हंगामे के फलस्वरूप 204 करोड़ रूपये की राशि बर्बाद हुई। इस दौरान संसद में नारेबाजी, बिल फाड़कर फेंकने और तख्तियां लहराने जैसी अशोभनीय घटनाएं भी देखने को मिलीं। लोकसभा स्पीकर ने बताया कि पूरे सत्र में 14 विधेयक पेश किए गए और 12 विधेयक पारित हुए। हालांकि, संविधान में 130वें संशोधन विधेयक को संयुक्त संसदीय समिति को भेज दिया गया। इन सबके बीच, 28-29 जुलाई को 'ऑपरेशन सिंदूर' पर एक विशेष चर्चा हुई, जिसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सदन को संबोधित किया। इसके अलावा, 18 अगस्त को भारत के अंतरिक्ष कार्यक्रम की उपलब्धियों पर भी एक विशेष चर्चा की गई। संसद सत्रों की कार्यवाही पर एक नज़र डालें तो लगेगा संसद में काम कम और हंगामा ज्यादा होता है। जनता के खून पसीने की कमाई हंगामे की भेंट चढ़ जाती है जो किसी भी स्थिति में लोकतंत्र के लिए हितकारी नहीं है। संसद के पिछले कुछ सत्रों में ऐसा ही कुछ हो रहा है। संसदीय लोकतंत्र में संसद ही सर्वोच्च है। हमारे माननीय संसद सदस्य इस सर्वोच्चता का अहसास कराने का कोई मौका भी नहीं चूकते, पर खुद इस सर्वोच्चता से जुड़ी जिम्मेदारी- जवाबदेही का अहसास करने को तैयार नहीं। बेशक विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र की ऐसी तस्वीर बेहद निराशाजनक ही नहीं, चिंताजनक भी है। संसद ठप रहने की बढ़ती प्रवृत्ति भी कम खतरनाक नहीं है। संसद सत्र अपने कामकाज के बजाय हंगामे के लिए ही समाचार माध्यमों में सुर्खियां बनता जा रहा है। अगर हम संसद की घटती बैठकों के मद्देनजर देखें तो सत्र के दौरान बढ़ता हंगामा और बाधित कार्यवाही हमारे माननीय सांसदों और उनके राजनीतिक दलों के नेतृत्व की लोकतंत्र में आस्था पर ही सवालिया निशान लगा देती है। संसद की देखा देखी अब राज्यों की विधान सभाओं में भी कामकाज के स्थान पर हंगामा ही देखने को मिल रहा है। विधानसभाएं शोर शराबे और हंगामे की केंद्र बिंदु बन गई है। किसी न किसी बहाने हंगामा करना स्वस्थ बहस से ज्यादा जरुरी हो गया है। विरोध का भी एक
तरीका होता है। हंगामे का मतलब किसी मसले पर सरकार से जवाब मांगना या किसी मसले पर कार्रवाई करना नहीं, बल्कि ऐसे हालात पैदा करना होता है जिससे वहां कोई काम ही न हो सके। इसके भरे-पूरे आसार हैं कि अगर सियासी पार्टी हंगामा करने लायक कोई मसले नहीं खोज पाई तो उसे ऐसे मसले उपलब्ध करा दिए जाएंगे। मगर अब हर छोटी मोटी बात पर हंगामा मामूली बात रह गया है। ऐसा लगता है जैसे हमारी स्वस्थ परम्पराएं अब लुप्त सी हो गई है। संसद हो या विधान सभा उनके अध्यक्ष के लिए सुचारु सञ्चालन भारी मुसीबत बनकर रह गया है। कोई भी नियम कानून मानने को तैयार नहीं है। अमर्यादित व्यवहार, शोरगुल और अध्यक्षीय आसन के प्रति घोर अवमानना की घटनाएं बहुधा होती हैं। जनता चाहती है कि संसद चले। पूरे समय चले। विचार विमर्श हो, जनहित के मुद्दे उठे और दलों में परस्पर सद्भाव हो। गौरतलब है 2014 में नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद पक्ष और विपक्ष में जो कटुता देखने को मिल रही है वह लोकतंत्र के हित में नहीं कही जा सकती। इससे हमारी लोकतान्त्रिक प्रणाली का ह्रास हुआ है। आज सत्ता और विपक्ष के आपसी सम्बन्ध इतने खराब हो गए है की आपसी बात तो दूर एक दूसरे को फूटी आँख भी नहीं सुहाते। दुआ सलाम और अभिवादन भी नहीं करते। औपचारिक बोलचाल भी नहीं होती। लोकतंत्र में सत्ता के साथ विपक्ष का सशक्त होना भी जरुरी है मगर इसका यह मतलब नहीं है की कटुता और द्वेष इतना बढ़ जाये की गाली गलौज की सीमा भी लाँघी जाये। लोकतंत्र की सफलता पक्ष और विपक्ष की मजबूती में है। लोकतंत्र तभी सुदृढ़ होगा जब राष्ट्रीय हितों के मामलों में दोनों की एक राय हो। देश सबसे बड़ा है। मगर ऐसा नहीं हो रहा है जो दुखद है। अब समय का तकाजा है सभी राजनीतिक पार्टियों में जो कुछ गंभीर और समझदार नेता बचे हैं वे लोकतांत्रिक प्रक्रिया में सभ्यता और मर्यादा बनाए रखने के लिए कोशिशें शुरू करें।
बाल मुकुन्द ओझा