यह सच है कि निजी अस्पताल मरीजों का एटीएम की तरह इस्तेमाल करते हैं

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निजी अस्पताल मरीजों का एटीएम की तरह इस्तेमाल करते हैं। ऐसा समाचार आज के कई समाचार पत्रों में छपा है . समाचार पत्रों में छपे समाचार के अनुसार गुरुवार को इलाहाबाद हाई कोर्ट ने एक केस की सुनवाई के दौरान यह टिप्पणी की है । अदालत ने लापरवाही के एक मामले में डॉक्टर के खिलाफ आपराधिक केस हटाने की मांग को खारिज करते हुए यह बात कही। जस्टिस प्रशांत कुमार की बेंच ने पाया कि डॉ. अशोक कुमार ने एक गर्भवती महिला को सर्जरी के लिए एडमिट कर लिया था, जबकि उनके पास एनेस्थिटिस्ट की कमी थी। वह काफी देर से पहुंचा और तब तक गर्भ में पल रहे भ्रूण की मौत हो गई थी। अदालत ने कहा कि यह सामान्य हो गया है कि अस्पताल पहले मरीजों को भर्ती कर लेते हैं और फिर संबंधित डॉक्टर को बुलाया जाता है।

दरअसल आज भारतीय समाज में आज भी यदि डॉक्टरी पेशे को इज्जत भरी निगाहों से देखा जाता है तो इसके पीछे चंद कतिपय ईमानदार और काबिल डॉक्टरों की मरीजों के प्रति समर्पित सेवा भावना को ही श्रेय जाता है। लेकिन बदलते वक्त के साथ साथ जैसे जैसे ‘बाप बड़ा न भैय्या सबसे बड़ा रुपैया’ वाली भावना हर पेशे के लोगों में बढ़ती जा रही है, वहां आदर्श, मूल्य, नैतिकता और ईमानदारी जैसे गुणों को तिलांजलि देकर अनैतिकता, स्वार्थ, लूटपाट और बईमानी जैसे कदाचार से परिपूर्ण दुर्गुणों ने ले ली है। सरकारी और निजी क्षेत्र में बढ़ते अनैतिक आचरण और फलफूल रहे भ्रष्टाचार पर आधारित ‘गब्बर इज बैक’ फिल्म की कहानी में कुछ कुछ उपर्युक्त वर्णित सामाजिक परेशानियों को ही उजागर करने का प्रयास फिल्म निर्माताओं ने किया था। भले ही ‘गब्बर इज बैक’ फिल्म की कहानी को समीक्षकों ने एक नीरस और पूरी तरह से निरर्थक फिल्म करार दिया हो या फिल्म को पूरी तरह से ‘मसाला’ फिल्म बताकर उसे खारिज कर दिया हो, तथापि भारतीय समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार और सरकारी नौकरीपेशा लोगों द्वारा बईमानी एवं रिश्वतखोरी से दो चार हो चुके लोगों को जरूर लगेगा कि यह फिल्म कहीं न कहीं उनकी व्यथा, पीड़ा और हताशा का प्रतिनिधित्व करती है।

इसी फिल्म का एक डायलॉग, ‘सोसायटी क्रिमिनल्स के कुछ करने से बर्बाद नहीं होती…सोसायटी तबाह होती है एक सक्षम आदमी के कुछ न करने से’, एक किरदार की हताशा को बयां करता है। फिल्म में एक छोटे कथानक द्वारा दर्शाया गया है कि किस प्रकार से प्राइवेट हॉस्पिटल माफिया के लोग सामान्य लोगों को परीक्षणों के नाम पर अथवा मर चुके व्यक्ति को भी वेंटिलेटर पर दिखा कर उपचार के नाम पर लूटते हैं, जो कहीं न कहीं अभी भी हमारे समाज और व्यवस्था में व्याप्त भ्रष्टाचार रूपी बीमारी को ही उजागर करता है। संदेश स्पष्ट है कि प्राय: निजी अस्पतालों अथवा सरकारी चिकित्सालयों में लापरवाही की ऐसी न जाने कितनी घटनाएं घटती रहती हैं, लेकिन हमारे कमजोर सिस्टम की वजह से फिर भी दोषी साफ बच निकलते हैं और भुक्तभोगी आम आदमी मन मसोस कर रह जाता है। भारतीय संस्कृति में ज्ञान का विशद प्रवाह पढऩे को मिलता है। हजारों वर्ष पूर्व वृहदारण्यक उपनिषद् के इस श्लोक में सभी जीवों के कल्याणार्थ प्रार्थना को ही देखें : ‘सर्वे भवन्तु सुखिन:, सर्वे सन्तु निरामया:। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, मा कश्चिद्दु:खभाग्भवेत्। ओउम शांति: शांति: शांति:॥’ अर्थात, हे ईश्वर, इस धरा में सभी प्राणी खुश रहें, सभी बीमारी से मुक्त हों। सभी देखें कि क्या शुभ है, किसी को भी कष्ट न हो।

और सर्वत्र शांति हो!’ इतना सुंदर ज्ञान एवं मार्गदर्शन होने के बावजूद मनुष्य इस आधुनिक युग में अपनी अनियंत्रित और असीमित भौतिकतावादी अभिलाषाओं की पूर्ति के लिए अपने पतन की पराकाष्ठा को लांघकर क्या क्या नहीं षड्यंत्र रचकर अपने ही भाईयों का निर्ममतापूर्वक शोषण कर खुश हो रहा है। कई मामलों में देखने में आया है कि सरकारी अस्पतालों के विशेषज्ञ डॉक्टर अपने घरों में ही निजी प्रैक्टिस कर रहे हैं या प्राइवेट अस्पतालों में भी सेवारत हैं। अभी पिछले दिनों आयुष्मान भारत योजना में प्राइवेट अस्पतालों द्वारा किए गए बड़े फर्जीवाड़े का खुलासा हुआ है। राष्ट्रीय स्वास्थ्य प्राधिकरण (एनएचए) में राष्ट्रीय धोखाधड़ी विरोधी इकाई (एनएएफयू) का गठन किया गया है। यह धोखाधड़ी से संबंधित मुद्दों की जांच करती है। एनएएफयू ने 6.66 करोड़ दावों में से प्राइवेट हॉस्पिटल के 562.4 करोड़ रुपए के 2.7 लाख क्लेम फर्जी पाए थे, जिन्हें रिजेक्ट किया गया है। सरकार ने इस मामले का कड़ा संज्ञान लेते हुए और इस पर सख्त कदम उठाते हुए 1 हजार 114 अस्पतालों को पैनल से हटा दिया है। भारत में वर्तमान में लगभग 13 लाख 86 हजार 159 एलोपैथिक डॉक्टर (एमबीबीएस) हैं, नेशनल मेडिकल कमीशन के अनुसार। इन डॉक्टरों के साथ, डॉक्टर-जनसंख्या अनुपात 1:811 है, जो विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा अनुशंसित 1.1000 से बेहतर है। देश में 1.18 लाख एमबीबीएस सीटें भी उपलब्ध हैं, जो कि 2014 में 51348 से बढक़र 118137 हो गई हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य सेवा तक पहुंच सीमित है और वहां बुनियादी ढांचे की भी कमी है। यदि हिमाचल की ही बात करें तो हिमाचल प्रदेश अपनी शांत वादियों, सरल जीवनशैली और प्राकृतिक सौंदर्य के लिए जाना जाता है, लेकिन हाल के वर्षों में राज्य में निजी अस्पतालों द्वारा आम जनता का आर्थिक शोषण बढ़ा है और फिर भी ज्यादातर मामलों में अंतत: रिश्तेदार अपने मरीजों को चंडीगढ़ लेकर जाने के लिए मजबूर नजर आते हैं।

जब सरकारी अस्पतालों की सुविधाएं अपर्याप्त साबित होती हैं, तब आम नागरिक मजबूरी में प्राइवेट अस्पतालों का रुख करता है। प्राय: देखने में आता है कि निजी अस्पतालों द्वारा छोटी सी जांच या इलाज के लिए हजारों से लेकर लाखों रुपए तक का बिल बना दिया जाता है। आईसीयू चार्ज, मॉनिटरिंग फीस, डिस्पोजेबल सामान, यहां तक कि बिस्तर की चादर और ग्लब्स के नाम पर भी पैसे वसूले जाते हैं। बहुत से मामलों में देखा गया है कि मरीज को केवल कमाई का साधन समझा जाता है और उनके जबरन एमआरआई, सीटी स्कैन, ब्लड टेस्ट आदि कराए जाते हैं, जो कई बार अनिवार्य भी नहीं होते हैं। कई बार मामूली समस्याओं को जटिल बताकर ऑपरेशन करने का भी दबाव डाला जाता है। याद रखें कि स्वास्थ्य सेवा व्यापार नहीं, जन हितैषी सेवा है। हिमाचल जैसे शांत और ईमानदार राज्य में इस तरह की घटनाएं सामाजिक न्याय की भावना को ठेस पहुंचाती हैं। वक्त आ गया है कि स्वास्थ्य सेवा को शोषण नहीं, सेवा एवं सहयोग का माध्यम बनाया जाए ताकि सर्वे संतु निरामया: की भावना की सर्वोच्चता बरकरार रहे। बहरहाल, स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार जरूरी हैं।

ध्यान देने वाली बात यह है कि हालिया इलाहाबाद हाई कोर्ट ने अपने फैसले में यह भी कहा है कि यह एक सामान्य प्रैक्टिस देखी जा रही है कि निजी अस्पताल मरीजों को इलाज के लिए एडमिट कर लेते हैं। भले ही उनके पास संबंधित बीमारी के इलाज के लिए डॉक्टर न हो। मरीजों को भर्ती करने के बाद ही ये डॉक्टर को कॉल करते हैं। एक बार मरीज को एडमिट करने के बाद ये लोग डॉक्टरों को कॉल करना शुरू करते हैं। यह सामान्य धारणा बन गई है कि निजी अस्पतालों की ओर से मरीजों का इस्तेमाल एक एटीएम की तरह किया जाता है, जिनसे पैसों की उगाही होती है।’ बेंच ने कहा कि ऐसे मेडिकल प्रोफेशनल्स को संरक्षण मिलना ही चाहिए, जो पूरी गंभीरता के साथ काम करते हैं।

अदालत ने कहा कि ऐसे लोगों पर ऐक्शन जरूरी है, जो बिना पर्याप्त सुविधा के ही अस्पताल खोल लेते हैं। ऐसा सिर्फ इसलिए ताकि वे मरीजों से मनमाने पैसे कमा सकें। अदालत ने सुनवाई के दौरान डॉक्टर के उस दावे को खारिज कर दिया कि उस समय महिला के परिजन ऑपरेशन के लिए तैयार ही नहीं थे। बेंच ने कहा कि यह मामला पूरी तरह से लापरवाही और अवैध कमाई करने का है। अदालत ने कहा कि डॉक्टर ने महिला को एडमिट कर लिया। परिवार से यह मंजूरी मिल गई कि ऑपरेशन किया जाए, लेकिन उसे टाला जाता रहा क्योंकि सर्जरी के लिए डॉक्टर ही उपलब्ध नहीं था।

बेंच ने कहा कि डॉक्टर ने ऑपरेशन के लिए 12 बजे अनुमति ले ली थी। इसके बाद भी सर्जरी नहीं हो सकी क्योंकि असप्ताल में डॉक्टर ही नहीं था। अदालत ने कहा कि एक डॉक्टर का संरक्षण उसी स्थिति में किया जाना जरूरी है, जब वह पूरे मन से काम कर रहा हो। फिर भी गलती हो तो उसे ह्यूमन फैक्टर मानकर नजरअंदाज किया जा सकता है। लेकिन लापरवाही के ऐसे मामलों में इस चीज को स्वीकार नहीं किया जा सकता।

-अशोक भाटिया

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