ज़रूरी है जेल से सरकार पर संविधान का अंकुश

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इस बार सांसद का मानसून सत्र दो विशेष कारणों से याद रखने योग्य है। संसद अपने तयशुदा कार्यक्रम 120 घंटे की बजाए महज 37 घन्टे ही काम कर पाई। दूसरा, सत्र के अंतिम दिन पेश किए गए प्रस्तावित130 वें संविधान संशोधन की वज़ह से मचा बवाल। केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने 20 अगस्त को लोकसभा में 130वां संविधान संशोधन विधेयक पेश किया। बिल कहता है कि प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री या कोई मंत्री अगर लगातार 30 दिन तक जेल में बंद रहता है, और आरोप ऐसा है कि उसमें 5 साल या उससे ज़्यादा की सज़ा हो सकती है, तो उसे पद से हटना पड़ेगा या उसका पद अपने आप समाप्त हो जाएगा। प्रस्तावित संशोधन विधेयक संविधान के अनुच्छेद 75, अनुच्छेद 164 और अनुच्छेद 239AA में बदलाव करेगा। यह प्रस्ताव फिलहाल संसदीय समिति के विचाराधीन है, लेकिन कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, आम आदमी पार्टी, तृणमूल कांग्रेस,राष्ट्रीय जनता दल और अन्य दलों का इसका जबरदस्त विरोध करना शुरू कर दिया है। इन दलों का आरोप है कि सरकार यह संशोधन विरोधी दलों को राजनीतिक साजिश में फंसाने के उद्देश्य से लाई है। दूसरी तरफ़ सरकार का दावा है कि इस विधेयक से राजनीति में भ्रष्टाचार और अपराध पर लगाम लगाई जा सकेगी। भारतीय संसदीय राजनीति में आपराधिक छवि वाले जनप्रतिनिधियों का बढ़ता आंकड़ा भारतीय लोकतंत्र के लिए गंभीर खतरों में से एक है। एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स और नेशनल इलेक्शन वॉच की साझा रिपोर्ट के मुताबिक वर्तमान 18वीं लोकसभा में 46 फीसदी के साथ ये संख्या 251 है। हालांकि संविधान का अनुच्छेद 102 और 191 दोषसिद्धि पर सांसदों-विधायकों को अयोग्य ठहराते हैं लेकिन संविधान में ऐसा कोई स्पष्ट प्रावधान नहीं है जिससे किसी प्रधानमंत्री या मंत्री को गंभीर आरोपों में गिरफ्तारी के बाद हटाया जा सके। इस कमी के कारण भ्रष्टाचार और अनैतिकता को बल मिलता है। प्रस्तावित विधेयक ठीक यही करता है- यह गिरफ़्तारी और दोषसिद्धि के बीच के खालीपन को भरता है, संवैधानिक शिष्टता के सिद्धांत और लोकतांत्रिक शुचिता को कायम रखता है। दरअसल इस विधेयक को लाने के मूल में स्वयं विपक्ष ही जिम्मेदार है। दिल्ली में आम आदमी पार्टी के मंत्री सत्येंद्र जैन और उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया पद पर रहते हुए विभिन्न आरोपों में गिरफ़्तार होकर जेल तो गए लेकिन पद पर बने रहे। बाद में यही हालात तब बने जब शराब घोटाले में गिरफ़्तार मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल जेल पहुंचे लेकिन इस्तीफ़ा देने की बाजार ‘जेल से ही सरकार’ चलाने लगे और जेल को राजनीतिक कार्यालय में बदल दिया। यह भारतीय लोकतांत्रिक राजनीति का पतन काल था। इनसे पहले बिहार के लालूप्रसाद यादव, तमिलनाडु की जयललिता और एम करुणानिधि, मध्यप्रदेश की उमा भारती और झारखंड के मधु कोड़ा और हेमंत सोरेन भी विभिन मामलों में गिरफ़्तार हुए लेकिन उन्होंने गिरफ़्तारी के साथ ही इस्तीफ़ा दे दिया था। दरअसल किसी मामले में दोषी सिद्ध सांसदों, विधयकों और मंत्रियों को अयोग्य घोषित करने की शुरुआत परोक्ष रूप से राहुल गांधी ने ही की। सुप्रीम कोर्ट ने 10 जुलाई 2013 के एक फैसले कहा था कि किसी सांसद या विधायक को दो वर्ष या अधिक सजा होने पर उसे तत्काल अयोग्य घोषित कर देना चाहिए। डॉ. मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली तत्कालीन यूपीए सरकार इस फैसले को ओवर राइड करने के उद्देश्य से 24 सितंबर 2013 को कैबिनेट द्वारा अनुमोदित एक अध्यादेश ले आई, इसका उद्देश्य दोषी ठहराए गए सांसदों और विधायकों को तत्काल अयोग्य घोषित होने से बचाना था। इससे खफ़ा होकर राहुल गांधी ने 27 सितंबर 13 को दिल्ली में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में इस अध्यादेश की कॉपी को ‘कम्प्लीट नॉनसेंस’ बताते हुए कहा कि इसे “फाड़कर फेंक देना चाहिए”। ग़ौरतलब है कि तब कांग्रेस सत्ता में थी और यह संदेश गया था कि राहुल गांधी राजनीति में शुचिता लाने के प्रबल पक्षधर हैं लेकिन वही राहुल गांधी विपक्ष में रहते हुए अब प्रस्तावित 130वें संशोधन के ख़िलाफ़ मुखर हो गए हैं। बी आर अंबेडकर ने संविधान सभा में चेतावनी दी थी कि भारत में लोकतंत्र न केवल संवैधानिक प्रावधानों पर बल्कि पद धारण करने वालों की नैतिक संरचना पर निर्भर करेगा। “एक संविधान कितना भी खराब क्यों न हो, यह अच्छा साबित हो सकता है अगर इसे काम करने के लिए बुलाए गए लोग अच्छे हों।” प्रस्तावित 130वां संशोधन इसी सिद्धांत को संस्थागत बनाता है। यह विधेयक यही सुनिश्चित करता है कि सरकारें जेल से नहीं चलाई जाएंगी और नहीं चलनी चाहिए। विरोधियों का तर्क है कि इसका दुरुपयोग विपक्ष शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों और मंत्रियों को निशाना बनाने के लिए किया जा सकता है। विपक्ष के इस दावे में दम नहीं है। यह विधेयक सभी दलों पर समान रूप से लागू होता है, चाहे वह भाजपा, कांग्रेस हो या क्षेत्रीय दल। सबसे महत्वपूर्ण बात, प्रधानमंत्री कार्यालय भी कानून के दायरे में रखा गया है। यह प्रावधान केवल अस्थायी हटाना सुनिश्चित करता है। एक बार रिहा होने के बाद, मंत्री को फिर से नियुक्त किया जा सकता है। लोकतंत्रों को न केवल चुनावों से बल्कि उनकी संस्थाओं की ईमानदारी से आंका जाता है। ‘मुख्यमंत्री जेल से सरकार चलाते हैं’ जैसे वाकये भारत की लोकतांत्रिक छवि को कमजोर करते हैं। प्रस्तावित कानून सार्वजनिक जीवन में शुचिता के प्रति प्रतिबद्ध राष्ट्र के रूप में भारत की लोकतांत्रिक प्रतिष्ठा को बढ़ाएगा।

-हरीश शिवननी

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