बिहार में खानदानी राजनीति का चुनावी जलवा

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बिहार की चुनावी सियासत इन दिनों परिवार और परिवारवाद के इर्द-गिर्द घूम रही है। बिहार में तीन माह बाद विधानसभा के चुनाव होने जा रहे है। राजनीतिक पार्टियों में परिवारवाद पर सियासी संग्राम छिड़ गया है। एक दूसरे पर परिवारवादी होने के आरोप जड़े जाने लगे है। साथ ही स्वयं को पाक साफ़ बताकर दूसरों पर दोषारोपण किया जा रहा है। चुनाव आते ही नेताओं के बेटा बेटी और रिश्तेदार सत्ता में संभावित बंटवारे के लिए सक्रीय हो जाते है। इसके लिए पार्टी की टिकट जरुरी है। यही टिकट उन्हें अपने परिवार के सहारे सत्ता की सीढ़ियों तक पहुँचाने का काम करती है। बिहार विधानसभा चुनाव की दुंदुभी बज चुकी है। चुनाव आयोग कभी भी तारीखों का ऐलान कर सकता है। बिहार विधानसभा चुनाव से पहले परिवारवाद हिलोरे मारने लगा है। इस प्रदेश में परिवारवाद महत्वपूर्ण चुनावी मुद्दा बन चुका है। सभी पार्टियां परिवारवाद की धमक से उबल रही है। नेता पुत्र भी कतार में है और पार्टी की ओर से हरी झंडी मिली तो चुनाव के मैदान में उतरने के लिए भी तैयार हैं। एनडीए हो या इंडिया उर्फ़ महागठंबंधन कोई भी परिवारवाद से अछूता नहीं है। सभी सियासी पार्टिया एक-दूसरे पर परिवारवाद के बहाने हमला भी कर रहे हैं, लेकिन खास बात यह है कि शायद ही कोई राजनीतिक दल इससे अछूता है। बिहार की राजनीति में परिवारवाद की जड़ें बहुत गहरी हो चुकी हैं। आरजेडी, लोक जनशक्ति, जेडी यू , हम और कांग्रेस पार्टी आदि सभी दलों में परिवारवाद का बोलबाला है। बिहार में जैसे-जैसे चुनाव नज़दीक आ रहे हैं, सियासी बयानबाज़ी तेज होती जा रही है। एक ओर जन सुराज परिवारवाद के मुद्दे को उठा रहा है, तो दूसरी ओर आरजेडी और एनडीए में भी आरोप-प्रत्यारोप जारी हैं। वहीं, राजनीतिक परिवारों की नई पीढ़ी को राजनीति में लाने की चर्चाएं भी गर्म हो रही हैं। नीतीश सरकार ने चिराग पासवान के बहनोई, जीतनराम मांझी और अशोक चौधरी के दामाद को आयोग और बोर्ड में नियुक्ति से विपक्षी दलों द्वारा परिवारवाद के आरोप में घेरने का मुद्दा बना हुआ है। बिहार में सबसे बड़ा सियासी परिवार पूर्व मुख्यमंत्री और आरजेडी सुप्रीमो लालू यादव का है। इस परिवार में आधा दर्ज़न से अधिक सदस्य राजनीति में सक्रीय है। राष्ट्रीय जनता दल परिवारवादी सियासत की जीवंत मिसाल है। लालू , पत्नी राबड़ी , बेटे तेजस्वी, बेटी मीसा भारती, रोहिणी आचार्य सहित अनेक सदस्यों की गिनती की जा सकती है। एक बड़े बेटे तेज प्रताप को लालू अपने परिवार से पृथक कर चुके है। दूसरा सियासी परिवार स्व. रामविलास पासवान का है। इनमें चिराग पासवान, मृणाल पासवान, पशुपति कुमार पारस, प्रिंस पासवान का नाम लिया जा सकता है। बेटा चिराग इस समय पासवान परिवार सहित लोक जनशक्ति पार्टी का प्रमुख है। इस परिवार में दामाद सहित कई लोग सियासत में सक्रीय है। पूर्व मुख्यमंत्री और हम के सुप्रीमों जीतन राम मांझी के परिवार में पुत्र संतोष सुमन, देवेंद्र मांझी दामाद, ज्योति देवी समधन, दीपा मांझी पुत्रवधू. शामिल है। बिहार के मुख्यमंत्री नीतिश कुमार का बेटा भी अपने पिता सहायता के लिए सक्रीय है। पूर्व सांसद आनंद मोहन,पूर्णिया के बाहुबली सांसद पप्पू यादव, पूर्व केंद्रीय मंत्री रामकृपाल यादव अपने बेटों को राजनीति में उतारने की तैयारी कर रहे हैं। मदन मोहन झा, जगदानंद सिंह अपने बेटों को चुनाव लड़ाने की तैयारी में जुटे है। पूर्व सांसद शहाबुद्दीन का बेटा ओसामा रघुनाथपुर से, अश्विनी चौबे का बेटा अर्जित शाश्वत भागलपुर से अशोक राम अपने बेटे अतिरेक को, वशिष्ठ नारायण सिंह का बेटा सोनू सिंह शाहाबाद से तथा अखिलेश प्रताप सिंह, हरिनारायण सिंह,आरके सिन्हा, लालमुनि चौबे अपने अपने बेटे को चुनाव लड़ाने के इच्छुक है। इसी भांति भाजपा और कांग्रेस के अनेक नेता पुत्र भी वंशवाद की शोभा बढ़ा रहे है। इसलिए यह कहा जा सकता है बिहार चुनाव वंशवाद की बेल बढ़ाने की और अग्रसर है और प्रमुख भूमिका निभा रहा है। इसी बीच जन सुराज पार्टी के मुखिया प्रशांत किशोर ने आरजेडी और जेडीयू पर भी परिवारवाद फैलाने का आरोप लगाया। गौरतलब है कई राजनीतिक विश्लेषक परिवारवाद और वंशवाद की परिभाषा अलग अलग बताते है। इन लोगों की मान्यता के अनुसार यदि संघर्ष के रास्ते कोई भाई अपनी जगह सियासत में बनाकर आता है तो उसे परिवारवाद का दोषी ठहराना उचित नहीं होगा। वहीँ दूसरे पक्ष के विश्लेषक मानते है कि परिवार के सहारे आगे बढ़ना अनुचित है। भारत के लोकतंत्र को समझने वाले लोगो का एक दृष्टिकोण ये भी है की इस देश में वंशवाद और राजशाही को लोकतंत्र का जामा ओढ़ाया गया है। राजशाही के जमाने में और लोकतंत्र में फर्क सिर्फ इतना है कि तब राजा ही अपने बेटे को उत्तराधिकारी घोषित करता था अब वो जनता से घोषित करवाता है। बहरहाल आम जनता की नजर में परिवारवाद और वंशवाद में कोई ज्यादा फर्क नहीं है। लोकतंत्र के लिए यह हितकारी नहीं है। लोकतंत्र ने आज पूरी तरहपरिवारतंत्र का जामा पहन लिया है। बड़े बड़े आदर्शों की बात करने वाले नेता परिवारमुखी होगये है। देश वंशवाद से कब मुक्त होगा यह बताने वाला कोई नहीं है।

-बाल मुकुन्द ओझा

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