भगवान शंकर जब देवी पार्वती को श्रीराम कथा का रसपान कराना आरम्भ करते हैं, तो सर्वप्रथम वे जो वाक्य कहते हैं, वे बड़े सार्थक व गंभीर हैं। भोलेनाथ कहते हैं, कि हे पार्वती जब मानव के शरीर की रचना होती है, तो उसके तन के प्रत्येक अंग को प्रभु भक्ति व सेवा साधना के लिए ही रचा गया होता है। उदाहरणतः अगर हम मनुष्य के कानों की ही बात करें, तो साधारण मानव अपने कर्ण द्वारों से, संसार के रसहीन रागा व गीतों को ही तो सुनता है। उसे मन को विचलित वाले गीतों में जो रुचि मिलती है, वह उसे प्रभु की कथा में नहीं मिलती। किसी की निंदा अथवा चुगली हो, तो वह अपने कर्ण द्वारों को ऐसे खोलता है, मानों स्वर्ग के द्वार खोले जा रहे हों। ऐसे ही लोगों के लिए भगवान शंकर ने कहा-
‘जिन्ह हरिकथा सुनी नहिं काना।
श्रवन रंध्र अहिभवन समाना।।’
अर्थात जो लोगों ने, कभी भी हरि की कथा को श्रवण नहीं किया। उनके कानों के छेद, कोई साधारण छेद न होकर, सर्पों की बिल वाले छेदों के समान हैं। निश्चित ही सर्प कभी बिल नहीं खोद सकता। क्योंकि उसकी देहाकृति उसे बिल खोदने की आज्ञा नहीं देती। प्रश्न उठता है, कि फिर कैसे सर्प की इतनी बिलें दिखाई देती हैं? वास्तव में सर्प चूहे की बिल पर आक्रमण करता है। बिल में चूहे को मार कर व उसे खाकर, सर्प उस बिल को अपना घर बना लेता है। जहाँ वह हर समय फूंकारता रहता है। बिल को अपने विष से विषाक्त रखता है। ठीक इसी प्रकार से हमारे कानों में रहना तो चाहिए, प्रभु की कथा के शब्दों का रस। किंतु निंदा व चुगली जैसे विषाक्त शब्दों रुपी सर्प, हमारे कानों पर अधिकार कर लेते हैं। जिस कारण हमारे कानों में केवल विष ही विष भरा होता है।
इसके पश्चात भगवान शंकर कहते हैं-
‘नयनन्हि संत दरस नहिं देखा।
लोचन मोरपंख कर लेखा।।’
अर्थात हमारे नयनों का भी एक विशेष कार्य है। देखा जाये तो व्यक्ति के मुख की सुंदरता में, आँखों की बनावट का बहुत बड़ा हाथ होता है। किसी नारी के नेत्रें की सुंदरता का बखान, इस अलँकृत शब्दों के साथ किया जाता है, कि अमुक सुंदरी की आँखें तो मृग की भाँति हैं। या यूँ कहें, कि वह नारी तो मृगनयनी है। क्या संतों की दृष्टि में भी, नयनों की सुंदरता की यही परिभाषा है? जी नहीं! वे इस तथ्य पर कभी केंद्रित नहीं होते, कि किसी की चमड़े की आँख कैसी है, या कैसी नहीं? अपितु वे यह देखते हैं, कि किन नेत्रें ने संतों के दर्शन किये हैं, या किन नेत्रें ने नहीं किये? अगर किसी ने संपूर्ण सृष्टि में, समस्त सुंदर लोकों व दृष्यों का दर्शण किया है, किंतु संतों का दर्शण नहीं किया, तो मान लेना चाहिए, कि उसके नेत्रें का कोई अर्थ ही नहीं रह जाता। उसके नेत्र ठीक ऐसे हैं, जैसे मोर के पंखों पर आँख बनी होती है। मोरपंख पर बनी आँख देखने में तो बहुत सुंदर होती है, किंतु उसकी सुंदरता किसी नेत्रहीन को कोई लाभ नहीं देती है। विचार करके देखिए, कोई नेत्रहीन उस मोरपंख पर बनी आँख को, अपने नेत्रें पर लगाकर कलपना करे, कि अब मुझे दिखने लग जायेगा। तो निश्चित ही यह उसका मतिभ्रम व अज्ञानता है। मोरपंख पर बनी आँख का उसके जीवन में कहीं से भी, कोई लाभ नहीं है। इसलिए ईश्वर ने यह मानव तन दिया है, तो इसकी सार्थक्ता इसमें नहीं, कि इससे संसार के मात्र भोग किये जायें। अपितु इसमें है, कि जीवन रहते-रहते, प्रभु की सेवा व साधना की जाये। क्योंकि यही जीवन का वास्तविक लक्षय है। आगे भगवान शंकर मानव के सीस पर एक बड़ा सुंदर व्यंग्य करते हैं। व्यंग्य इस संदर्भ में है, कि प्रमात्मा ने मानव को सीस तो दे दिया, किंतु इस सीस को वह गर्व की चाश्नी में डिबोकर, किसी ओर ही दिशा में लिजा रहा है। हमारे सीस की वास्तविक लक्षय क्या है? जानेंगे अगले अंक में।