पत्थरों को प्राण देने वाले कलाकार का अंत: राम वनजी सुतार

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पत्थरों में जान फूंकने वाले,आधुनिक भारत के सबसे प्रभावशाली और बहुत ही मशहूर भारतीय मूर्तिकार पद्मश्री राम वनजी सुतार का 100 साल की उम्र में निधन हो गया। उन्होंने 17 दिसंबर 2025 की मध्य रात्रि को नोएडा स्थित अपने निवास पर आखिरी सांस ली। कम ही लोग जानते होंगे कि राम सुतार ने केवल भारत, ब्रिटेन,आस्ट्रेलिया, बल्कि अमेरिका, फ्रांस,रूस और इटली सहित दुनिया के कई देशों में महात्मा गांधी की प्रतिमाएं स्थापित करके भारत का नाम रोशन किया है। वे ऐसे महान कलाकार थे जो कभी भी अंतरराष्ट्रीय प्रचार के पीछे नहीं भागे। उनका मानना है-‘कला बोलती है, कलाकार नहीं।’ उनकी रचनात्मकता के लिए उन्हें पद्म विभूषण भी प्रदान किया गया है। उल्लेखनीय है कि उनके बेटे अनिल सुतार भी मूर्तिकार हैं और कई बड़े प्रोजेक्ट्स में पिता के साथ काम कर चुके हैं और यह विरासत आधुनिक भारत में दुर्लभ है।उन्होंने कभी अतिशयोक्तिपूर्ण या अमूर्त शैली को नहीं अपनाया। उनके अनुसार, ‘इतिहास के व्यक्तित्व को जनता उसी रूप में देखना चाहती है, जैसे वह था।’ उन्होंने दुनिया की सबसे ऊंची प्रतिमा बनाई है, जो गुजरात में स्थित सरदार वल्लभभाई पटेल की 182 मीटर ऊंची प्रतिमा है, जिसे स्टैच्यू ऑफ यूनिटी कहा जाता है। दिलचस्प तथ्य यह है कि राम सुतार ने सरदार पटेल की सबसे अधिक मूर्तियाँ बनाई हैं।इतनी कि उन्हें ‘पटेल का आधिकारिक शिल्पकार’ भी कहा जाता है।सच तो यह है कि ‘स्टैच्यू ऑफ यूनिटी’ उनके जीवन का शिखर कार्य है। वास्तव में, इतनी विशाल प्रतिमा का नेतृत्व एक ऐसे कलाकार ने किया है, जिसने जीवन भर मानवीय अनुपात और यथार्थवाद को ही प्राथमिकता दी है। पाठकों को बताता चलूं कि राम सुतार का जन्म महाराष्ट्र के गोंडूर गांव में एक साधारण,गरीब कारीगर (सुतार) परिवार में 19 फ़रवरी 1925 को हुआ था। बचपन में उन्होंने लकड़ी पर नक्काशी का काम पारिवारिक परंपरा से सीखा-यहीं से मूर्तिकला की नींव पड़ी।उन्होंने जे.जे. स्कूल ऑफ आर्ट, मुंबई से पढ़ाई की, लेकिन उनकी कला में शुद्ध अकादमिक शैली के साथ भारतीय लोक और ग्रामीण संवेदना भी साफ दिखती है।गौरतलब है कि राम सुतार ने अपने करियर में कई प्रसिद्ध मूर्तियां बनाई है, जिनमें स्टैच्यू ऑफ यूनिटी के अलावा महात्मा गांधी,डॉ. बाबासाहेब अंबेडकर,छत्रपति संभाजी महाराज, भगवान शिव और अनेक प्रतिमाएं शामिल हैं। राम सुतार ने महात्मा गांधी की 350 से अधिक मूर्तियां बनाईं हैं, जो दुनिया भर में स्थापित है।उनकी बनाई महात्मा गांधी की प्रतिमाएं लंदन, वॉशिंगटन, कैनबरा तक में स्थापित हैं।उन्होंने डॉ. अंबेडकर की भी कई मूर्तिया बनाई है, जिनमें से एक मुंबई के चैत्यभूमि में, तथा संसद परिसर सहित बहुत से शहरों में स्थापित है। बेंगलूरु में स्थित भगवान शिव की 153 फीट ऊंची प्रतिमा भी उनकी प्रमुख कृतियों में से एक मानी जाती है।इसी प्रकार से मोशी, पुणे में स्थित छत्रपति संभाजी महाराज की 100 फीट ऊंची प्रतिमा भी उनकी प्रमुख कृतियों में से एक है। इतना ही नहीं, पटना में गांधी मैदान में गांधी की दो बच्चों के साथ लगी प्रतिमा भी उनके द्वारा बनाई गई है। भारत और विदेशों में उन्होंने भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की बहुत सी कृतियां बनाईं हैं। विभिन्न राष्ट्रीय स्थलों पर उनकी बनाई इंदिरा गांधी की प्रतिमाएं भी स्थापित हैं।विविध सार्वजनिक स्थानों पर आपको उनकी बनाईं चाणक्य, बुद्ध, विवेकानंद की प्रतिमाएं देखने को मिलतीं हैं। उल्लेखनीय है कि 1961 में गांधीसागर बांध पर देवी चंबल की 45 फुट ऊंची प्रतिमा ने उन्हें राष्ट्रीय पहचान दिलाई। इसके बाद संसद भवन परिसर में गोविंद वल्लभ पंत की आदमकद प्रतिमा सहित कई महत्वपूर्ण कृतियां उन्होंने तैयार की। संसद भवन परिसर में स्थापित महात्मा गांधी की ध्यान मुद्रा वाली प्रतिमा उनकी सबसे चर्चित रचनाओं में से एक है। राम सुतार ने पत्थर, संगमरमर और कांस्य जैसे कई माध्यमों में काम किया, लेकिन कांस्य उनकी सबसे प्रिय धातु रही है। अयोध्या के लता मंगेशकर चौक पर स्थापित विशाल वीणा भी उनकी कला का अनुपम उदाहरण है। बहुत कम ज्ञात तथ्य है कि उन्होंने हज़ारों मूर्तियाँ बनाईं, पर अधिकांश पर उन्होंने हस्ताक्षर नहीं किए। विशाल प्रतिमाओं में भी वे पहले मानव-अनुपात का छोटा मॉडल खुद बनाते थे। वास्तव में, उनके लिए मूर्तिकला ध्यान और साधना थी, न कि प्रदर्शन। उन्होंने अपना स्टूडियो नोएडा में ही बनाया था तथा वर्ष 1990 से वह यही रह रहे थे।बचपन से ही कला के प्रति उनका गहरा झुकाव था। उनकी प्रतिभा को उनके गुरु रामकृष्ण जोशी ने पहचाना और उन्हें मुंबई के प्रतिष्ठित जे.जे. स्कूल ऑफ आर्ट्स में दाखिला लेने के लिए प्रेरित किया। यही से उनकी मूर्तिकला की यात्रा शुरू हुई, जो आगे चलकर उन्हें अंतरराष्ट्रीय ख्याति तक ले गई। गौरतलब यह भी है कि वे इस स्कूल ऑफ आर्ट(जे.जे. स्कूल ऑफ आर्ट्स) से अपने समय में स्वर्ण पदक विजेता थे। उपलब्ध जानकारी के अनुसार वे 1959 में महाराष्ट्र से दिल्ली आ गये थे। दिल्ली आकर उन्होंने सूचना और प्रसारण मंत्रालय में नौकरी भी की लेकिन कला के प्रति गहरे समर्पण के कारण उन्होंने इसे छोड़ दिया था। बहरहाल, पाठकों को बताता चलूं कि विख्यात मूर्तिकार राम सुतार को पिछले महीने ही महाराष्ट्र भूषण पुरस्कार से सम्मानित किया था और उन्हें सम्मानित करने के लिए महाराष्ट्र सरकार उनके नोएडा में सेक्टर-19 स्थित घर पहुंची थी। मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस, उपमुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे, उपमुख्यमंत्री अजीत पवार और संस्कृति मंत्री(महाराष्ट्र के सांस्कृतिक मामलों के मंत्री) आशीष शेलर ने उन्हें सम्मानित किया था। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने 20 मार्च को विधानसभा में मूर्तिकार राम सुतार को राज्य का सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार ‘महाराष्ट्र भूषण’ देने की भी घोषणा की थी। इसके तहत 25 लाख रुपये और एक स्मृति चिह्न प्रदान किया गया था। इस अवसर पर उन्होंने कहा था कि उन्हें गर्व है कि राम सुतार मूलरूप से महाराष्ट्र के निवासी है। उन्हें टैगोर पुरस्कार से भी नवाजा जा चुका है,जो एक प्रतिष्ठित पुरस्कार है। अंत में यही कहूंगा कि देश के सबसे प्रतिष्ठित और अनुभवी मूर्तिकार राम वनजी सुतार का निधन कला जगत के लिए एक अपूरणीय क्षति है। ऐसे महान व बड़े मूर्तिकार को उनके महत्त्वपूर्ण योगदान के लिए हमेशा याद किया जाएगा। उनके कार्य में अद्भुत सहजता और उच्च कोटि की निपुणता स्पष्ट झलकती है। उन्होंने ऐसी मूर्तियाँ गढ़ी हैं, जो यथार्थ की सीमाओं को छूती प्रतीत होती हैं। उनके लिए मूर्तिकला मात्र कला नहीं, बल्कि गहन विज्ञान का समन्वय है; यही कारण है कि उनके द्वारा रचित शिल्प आकार ही नहीं, भाव, ऊर्जा और चेतना के स्तर पर भी पूर्णतः सजीव दिखाई देते हैं।राम सुतार आज हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन दुनिया के करीब पांच सौ शहरों में उनके द्वारा निर्मित प्रतिमाएं उनकी याद दिला रही हैं। ऐसे में, भारत ही नहीं, अनेक देशों में लोग उन्हें भुला न पाएंगे। कहना ग़लत नहीं होगा कि राम सुतार एक महान शिल्पकार थे, जिनसे दुनिया भर के कई कलाकारों ने सीखा। उनकी यथार्थवादी शैली आज भी मूर्तिकला की पढ़ाई का अहम हिस्सा है। छोटे आकार के शिल्प तो बहुत लोग बनाते हैं, लेकिन विशालकाय मूर्तियों को सटीक रूप देना उन्हें खास बनाता है। वे सिर्फ मूर्तिकार नहीं थे, बल्कि वास्तुकला और इंजीनियरिंग का भी गहरा ज्ञान रखते थे। इसी वजह से उन्होंने असाधारण और ऐतिहासिक प्रतिमाएं बनाई। उनकी सबसे बड़ी पहचान उनकी कला, उनकी विरासत और आने वाली पीढ़ियों के लिए छोड़ा गया मार्ग है। उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि यही है कि उनकी कला और परंपरा को आगे बढ़ाया जाए।

-सुनील कुमार महला

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