भ्रष्टाचार का वैश्विक संकट और हमारी नैतिक जिम्मेदारी

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हर वर्ष 9 दिसंबर को मनाया जाने वाला अंतरराष्ट्रीय भ्रष्टाचार विरोधी दिवस केवल एक औपचारिक स्मरण दिवस नहीं है, बल्कि मानव सभ्यता के लिए उस चुनौती की ओर संकेत करता है जो राष्ट्रों की प्रगति, सामाजिक न्याय और नैतिक मूल्यों को भीतर से क्षीण करती रहती है। यह दिन 2003 में संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा स्वीकृत संयुक्त राष्ट्र भ्रष्टाचार विरोधी अभिसमय की याद दिलाता है, जिसने भ्रष्टाचार को किसी एक देश, संस्था या समाज की समस्या न मानकर एक वैश्विक संकट के रूप में स्वीकार करने का साहस दिखाया। दुनिया की राजनीति, अर्थव्यवस्था और सामाजिक संरचनाओं में फैलती अनियमितताओं और सत्ता-लाभ के रोग ने जिस प्रकार राष्ट्रों की क्षमताओं को कमजोर किया है, वह इस अभिसमय की आवश्यकता को स्पष्ट करता है। भ्रष्टाचार विकास का सबसे बड़ा अवरोध इसलिए भी है कि यह राज्य के संसाधनों और संरचनाओं को उस स्थान तक पहुँचने से रोक देता है जहाँ उन्हें पहुँचना चाहिए जनता के जीवन में सुधार, समान अवसरों की उपलब्धता और न्यायपूर्ण समाज का निर्माण।

आज विश्व बैंक की रिपोर्ट्स और वैश्विक संगठनों के आकलन स्पष्ट बताते हैं कि भ्रष्टाचार प्रतिवर्ष खरबों डॉलर को निगल जाता है। रिश्वत, घोटाले, फर्जी ठेके, लाभ हस्तांतरण और मनी लॉन्ड्रिंग जैसे रूपों में यह आर्थिक अपराध अब किसी सीमा में बँधा नहीं रहा। सबसे अधिक पीड़ा की बात यह है कि इसका दुष्प्रभाव उन लोगों पर पड़ता है जिनके पास आवाज़ कमजोर है, संसाधन सीमित हैं और जिनकी जीवन-गुणवत्ता शासन की ईमानदार नीतियों पर निर्भर करती है। विकासशील देशों के स्वास्थ्य, शिक्षा और जनकल्याण कार्यक्रमों के विफल होने के पीछे अनेक कारण हो सकते हैं, पर भ्रष्टाचार उन सभी का साझा और सबसे निर्दयी दोषी है।

भारत जैसे लोकतांत्रिक राष्ट्र में भ्रष्टाचार की समस्या और भी जटिल हो जाती है क्योंकि यहाँ शासन जनता की भागीदारी पर आधारित है। लोकतंत्र की आत्मा ही पारदर्शिता और जवाबदेही है, किंतु जब व्यवस्थाएँ राजनीति, नौकरशाही, ठेकों और व्यावसायिक हितों के दबाव में उलझने लगती हैं, तब सार्वजनिक विश्वास टूटता है। स्वतंत्रता के बाद से भारत ने नीतिगत सुधारों, प्रशासनिक पारदर्शिता और संस्थागत व्यवस्था को मजबूत करने के अनेक प्रयास किए। लोकपाल, केन्द्रीय सतर्कता आयोग, सूचना का अधिकार अधिनियम जैसे कदम निश्चित रूप से परिवर्तन की दिशा में महत्त्वपूर्ण हैं। डिजिटल गवर्नेंस, डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर और आधार आधारित सत्यापन ने लाभार्थी योजनाओं में पारदर्शिता बढ़ाई है। फिर भी यह स्वीकार करने में संकोच नहीं होना चाहिए कि भ्रष्टाचार की जड़ें सामाजिक और राजनीतिक ताने-बाने में अभी भी गहरी हैं।

समस्या का सबसे कठिन पक्ष यह है कि भ्रष्टाचार केवल कानून से नियंत्रित होने वाली गतिविधि नहीं, बल्कि मनोवृत्ति है। जब समाज में लाभ-प्रथम सोच मूल्य-आधारित जीवन को पीछे धकेल देती है, जब सुविधा पाने के लिए शॉर्टकट सामान्य व्यवहार बन जाता है, और जब शक्ति का उपयोग सेवा की जगह पकड़ मजबूत करने में किया जाने लगता है तभी भ्रष्टाचार एक आदत बन जाता है। भारतीय परंपरा में सत्य, धर्म और ईमानदारी को सर्वोच्च स्थान दिया गया है। “सत्यमेव जयते” केवल मुहर पर अंकित वाक्य नहीं, बल्कि शासन की मूल आत्मा है। गांधी ने सत्य को राजनीति का केंद्र बताया, कबीर ने मानव चरित्र की पवित्रता को श्रेष्ठता का पैमाना माना और तुलसी ने मर्यादा को जीवन-संयम का आधार कहा। ऐसे सांस्कृतिक धरोहर वाले समाज में भ्रष्टाचार का फैलना यह दर्शाता है कि संकट केवल संस्थानों का नहीं, बल्कि मनुष्य की नैतिकता का भी है। यदि पारिवारिक और सामाजिक परिवेश बच्चों और युवाओं में ईमानदारी के संस्कार विकसित नहीं करता, तो प्रशासनिक सुधार चाहे जितने सक्षम हों, वे अधूरे ही रहेंगे।

युवा पीढ़ी इस परिवर्तन का सबसे प्रभावी साधन बन सकती है। शिक्षा संस्थानों में नैतिक शिक्षा को केवल एक विषय की तरह नहीं, बल्कि जीवन-दृष्टि की तरह समझाया जाना चाहिए। युवाओं को यह समझने की आवश्यकता है कि पारदर्शिता की मांग केवल आलोचना नहीं, बल्कि निर्माण का मार्ग है। डिजिटल प्लेटफॉर्म आज आवाज़ को ताकत देते हैं, पर उनका उपयोग केवल सनसनी या राजनीतिक शोर के लिए नहीं, बल्कि जागरूकता और सुधार के लिए होना चाहिए। सच यह है कि परिवर्तन लाने का साहस अक्सर युवाओं में ही होता है और यदि वही भ्रष्टाचार-विरोधी सोच के वाहक बनें, तो आने वाली पीढ़ियों को एक बेहतर शासन-प्रणाली विरासत में मिल सकती है।

भ्रष्टाचार का चरित्र आज अंतरराष्ट्रीय हो चुका है। एक देश में हुए अपराध का पैसा दूसरे देशों की टैक्स हैवन अर्थव्यवस्थाओं में सुरक्षित हो जाता है। कॉरपोरेट लॉबिंग, डिजिटल वित्तीय नेटवर्क, सीमा-पार निवेश और व्यापारिक गठजोड़ों ने भ्रष्टाचार को एक वैश्विक उद्योग का रूप दे दिया है। ऐसे में दुनिया के देशों के बीच सूचनाओं का आदान-प्रदान, आपराधिक प्रत्यर्पण और वित्तीय पारदर्शिता के लिए साझा मंच अनिवार्य हो गया है। संयुक्त राष्ट्र, विश्व बैंक, इंटरपोल और वित्तीय कार्रवाई कार्य बल (Financial Action Task Force) जैसी संस्थाएँ मिलकर जिस सहयोगी ढांचे की वकालत कर रही हैं, वह इस लड़ाई को अगले स्तर पर ले जाने में सहायक हो सकता है। कोई भी देश यह मानकर नहीं चल सकता कि वह अकेले इस संकट से निपट सकता है।

अंतरराष्ट्रीय भ्रष्टाचार विरोधी दिवस हमें यही सोचने का अवसर देता है कि ईमानदारी किसी और से अपेक्षित गुण नहीं, बल्कि स्वयं से शुरू की जाने वाली प्रक्रिया है। समाज के हर स्तर पर, घर से लेकर कार्यालय तक, शिक्षालय से लेकर प्रशासन तक, हम जितना ईमानदारी को व्यवहार में उतारेंगे, उतना ही भ्रष्टाचार का दायरा सिमटेगा। कानून और संस्थाएँ अपनी जगह महत्त्वपूर्ण हैं, पर वे तभी प्रभावी हो सकती हैं जब नागरिक स्वयं नैतिकता के प्रति प्रतिबद्ध हों।

स्वच्छ, पारदर्शी और न्यायपूर्ण समाज किसी एक सरकार के प्रयासों का परिणाम नहीं होता; यह नागरिकों की सामूहिक चेतना और निरंतर ईमानदार आचरण से बनता है। विकास तभी टिकाऊ है जब वह सत्य और न्याय की नींव पर खड़ा हो। अंतरराष्ट्रीय भ्रष्टाचार विरोधी दिवस यह स्मरण कराता है कि दुनिया तभी आगे बढ़ सकती है जब ईमानदारी उसका आधार बने और यह आधार किसी दस्तावेज़ में दर्ज नहीं, बल्कि मनुष्य के भीतर निर्मित होता है।

– महेन्द्र तिवारी

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