भारत द्वारा बांग्लादेश की पूर्व प्रधानमंत्री शेख हसीना को प्रत्यर्पित न करने का मुद्दा दक्षिण एशिया की राजनीति में ऐसे समय उभरकर सामने आया है जब क्षेत्र पहले से ही अस्थिरता, शक्ति-संतुलन और वैश्विक दबावों के बीच एक निर्णायक चरण से गुजर रहा है। यह मामला सिर्फ एक कानूनी प्रक्रिया या द्विपक्षीय औपचारिकता भर नहीं है; इसके भीतर कानून, नैतिकता, रणनीतिक हित और क्षेत्रीय भू-राजनीति के कई स्तर एक-दूसरे में उलझे हुए हैं। शेख हसीना पर बांग्लादेश के अंतरराष्ट्रीय अपराध न्यायाधिकरण द्वारा मानवता के खिलाफ अपराधों के आरोप में मृत्युदंड सुनाया गया है, लेकिन यह फैसला जिस तरह उनकी अनुपस्थिति में, पक्षपात और राजनीतिक प्रतिशोध के आरोपों के बीच आया, उसने इसे एक सामान्य न्यायिक फैसले से कहीं अधिक राजनीतिक बना दिया है। भारत के लिए यह मुद्दा संवेदनशील इसलिए भी है, क्योंकि शेख हसीना न केवल पड़ोसी देश की एक पूर्व प्रधानमंत्री हैं, बल्कि पिछले डेढ़ दशक में भारत-बांग्लादेश संबंधों की सबसे महत्वपूर्ण आधारशिला भी रही हैं।
भारत और बांग्लादेश के बीच 2013 की प्रत्यर्पण संधि तथा 2016 के संशोधन ने दोनों देशों को अपराधियों के आदान-प्रदान का कानूनी ढांचा दिया, पर साथ ही इसमें ऐसे प्रावधान भी जोड़े गए जो राजनीतिक या पूर्वाग्रहपूर्ण मामलों में प्रत्यर्पण से इनकार की स्पष्ट अनुमति देते हैं। संधि के आर्टिकल 6 और आर्टिकल 8 भारत को वह आधार प्रदान करते हैं जिसके अनुसार यदि किसी मामले का चरित्र राजनीतिक हो, या यदि आरोपी को अपने देश में निष्पक्ष न्याय मिलने की संभावना संदिग्ध हो, तो उसे प्रत्यर्पित करना आवश्यक नहीं है। शेख हसीना के मामले में यही प्रश्न सबसे महत्वपूर्ण है—क्या उनका ट्रायल न्यायिक प्रक्रिया का पालन करता है या फिर यह एक राजनीतिक प्रतिशोध का विस्तार है? अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार संगठनों, विद्वानों और क्षेत्रीय विश्लेषकों की बड़ी संख्या का मत है कि यह मामला न्यायिक संतुलन की जगह राजनीतिक बदले की भावना से अधिक संचालित प्रतीत होता है। ऐसे में भारत के लिए यह कहना कठिन नहीं कि यह मुकदमा निष्पक्षता के मानकों पर खरा नहीं उतरता।
भारत की रणनीतिक और कूटनीतिक चिंता इससे भी गहरी है। शेख हसीना के शासनकाल में भारत और बांग्लादेश के संबंधों ने अभूतपूर्व मजबूती हासिल की। पूर्वोत्तर राज्यों में उग्रवाद पर नियंत्रण, सीमा प्रबंधन, नदी जल बंटवारा, व्यापार सुगमता, कनेक्टिविटी परियोजनाएँ और चीन के बढ़ते प्रभाव को संतुलित रखने का काम—ये सब शेख हसीना के नेतृत्व में संभव हुआ। उन्होंने न केवल भारत की सुरक्षा चिंताओं का सम्मान किया बल्कि कई ऐसे कदम उठाए जिन्हें बांग्लादेश की घरेलू राजनीति में काफी जोखिमपूर्ण माना जाता था। उनके इस सहयोग से भारत को न केवल सीमा पर स्थिरता मिली बल्कि दक्षिण एशिया में अपने प्रभाव को भी बनाए रखने में मदद मिली। ऐसी स्थिति में यदि भारत उन्हें प्रत्यर्पित कर देता, तो यह उसके अपने दीर्घकालिक हितों को चोट पहुंचाने जैसा होता। इसके साथ ही यह संदेश भी जाता कि भारत अपने मित्र राष्ट्रों के नेतृत्व को राजनीतिक अस्थिरता के क्षणों में संरक्षण देने में हिचकिचाता है, जो भविष्य की कूटनीतिक संभावनाओं के लिए प्रतिकूल संकेत होता।
हालांकि भारत का यह निर्णय जोखिमों से मुक्त नहीं है। बांग्लादेश में वर्तमान सत्ता प्रतिष्ठान और भारत-विरोधी समूह इस कदम को आंतरिक राजनीति में भारतीय हस्तक्षेप का प्रमाण बताने की कोशिश कर सकते हैं। सीमा पर अवैध गतिविधियों में वृद्धि का खतरा भी बना रहेगा, क्योंकि राजनीतिक तनाव अक्सर उन तंत्रों को कमजोर कर देता है जिनके बल पर सीमा नियंत्रण होता है। व्यापार, ऊर्जा साझेदारी और कनेक्टिविटी परियोजनाओं की गति धीमी पड़ने की संभावना भी है। चीन और पाकिस्तान के लिए यह एक नया अवसर उत्पन्न करेगा कि वे बांग्लादेश में अपना प्रभाव बढ़ाएं और भारत की क्षेत्रीय रणनीति को चुनौती दें। यह एक ऐसा परिदृश्य होगा जिसे भारत को सावधानी से संतुलित करना होगा।
फिर भी यह तथ्य अपनी जगह कायम है कि भारत की आर्थिक, कूटनीतिक और सामरिक स्थिति अब इतनी कमजोर नहीं कि ऐसे दबाव उसके दिशा-निर्देश तय करें। दक्षिण एशिया में राजनीतिक गठबंधन अक्सर आदर्शवाद से ज्यादा वास्तविकता और पारस्परिक हितों के आधार पर टिके होते हैं। भारत जानता है कि बांग्लादेश के साथ संबंधों में अस्थायी उतार-चढ़ाव आएंगे, लेकिन दोनों देशों के बीच भौगोलिक, आर्थिक और सांस्कृतिक समीकरण इतने गहरे हैं कि स्थायी दूरी किसी के हित में नहीं है। भारत यह भी भली-भाँति समझता है कि बांग्लादेश के भीतर लोकतांत्रिक स्थिरता और कट्टरपंथ पर नियंत्रण तभी संभव है जब वह संतुलित, सहायक और संवेदनशील पड़ोसी की भूमिका निभाए।
भारत सरकार के आधिकारिक बयान, जिसमें कहा गया कि निर्णय “बांग्लादेश के लोगों और क्षेत्रीय स्थिरता के सर्वोत्तम हितों” को ध्यान में रखकर लिया जाएगा, इसी संतुलन और संवेदनशीलता की झलक है। भारत न तो इस मामले को केवल दो देशों के बीच कानूनी प्रक्रिया के रूप में देख सकता है और न ही इसे पूरी तरह राजनीतिक मानकर मनमर्जी से निर्णय ले सकता है। यह फैसला क्षेत्र की स्थिरता, लोकतांत्रिक मूल्यों और मानवाधिकारों के व्यापक संदर्भ में लेना होगा।
समग्र रूप से देखें तो भारत द्वारा शेख हसीना को प्रत्यर्पित न करने के पीछे कानूनी आधार जितना स्पष्ट है, उससे कहीं अधिक गहरे राजनीतिक और सामरिक कारक भी काम कर रहे हैं। यह सिर्फ एक व्यक्ति की सुरक्षा का प्रश्न नहीं, बल्कि दक्षिण एशिया में संतुलन, सहयोग और स्थिरता बनाए रखने की कोशिश का हिस्सा है। इसलिए निकट भविष्य में उनके प्रत्यर्पण की संभावना न के बराबर दिखती है, और भारत फिलहाल उनके लिए सुरक्षित आश्रय का स्थान बना रहेगा—यही निर्णय आज की परिस्थितियों में भारत के हितों और क्षेत्रीय शांति दोनों के अनुकूल प्रतीत होता है।
– महेन्द्र तिवारी



