देश के पहले शिक्षा मंत्री मौलाना अबुल कलाम आजाद की जयंती हर साल 11 नवंबर को राष्ट्रीय शिक्षा दिवस के रूप में मनाई जाती है। कलाम की देश के प्रमुख क्रन्तिकारी श्री अरविन्दों घोष और श्याम सुंदर चक्रवर्ती से मुलाकात के बाद उन्होंने भारत के राष्ट्रीय आंदोलन में हिस्सा लेना शुरू कर दिया। कलाम की यह कोशिश उन मुस्लिम राजनीतिज्ञों को पसंद नहीं आई। इसके अलावा ऑल इंडिया मुस्लिम लीग के दो राष्ट्रों के सिद्धांत को भी उन्होंने खारिज कर दिया था। वह उन पहले मुस्लिमों में शामिल थे जिन्होंने धर्म के आधार पर एक अलग देश पाकिस्तान के निर्माण के प्रस्ताव को खारिज किया था। उन्होंने कई किताबें भी लिखीं जिनमें उन्होंने ब्रिटिश शासन का विरोध किया और भारत में स्वशासन की वकालत की। भारत के स्वतंत्रता संग्राम पर उन्होंने एक किताब भी लिखी है, इंडिया विंस फ्रीडम जिसे 1957 में प्रकाशित किया गया।
आजाद की जयंती को राष्ट्रीय शिक्षा दिवस के रूप में 2008 से मनाई जाती है। मौलाना आजाद महात्मा गाँधी के विचारों से बेहद प्रभावित थे। वे कवि, लेखक, पत्रकार और स्वतंत्रता सेनानी थे। मौलाना आजाद देश की सांस्कृतिक परम्पराओं को शिक्षा प्रणाली में शामिल करने के प्रबल हिमायती थे। इसीलिए 1947 में आजादी के बाद भारत के प्रथम शिक्षामंत्री बनने पर उन्होंने पढ़ाई-लिखाई और संस्कृति के मेल और समन्वय पर विशेष ध्यान दिया। मौलाना आजाद की अगुवाई में 1950 के शुरुआती दशक में संगीत नाटक अकादमी, साहित्य अकादमी और ललित कला अकादमी का गठन हुआ। इससे पहले वह 1950 में ही भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद बना चुके थे। उन्होंने भारत में धर्म, जाति और लिंग से ऊपर उठ कर 14 साल तक सभी बच्चों को प्राथमिक शिक्षा दिए जाने पर बल दिया था। मौलाना आजाद महिला शिक्षा के खास हिमायती थे। मौलाना आजाद को एक ओजस्वी वक्ता के रूप में जाना जाता है। वे महिलाओं की शिक्षा के प्रबल पक्षधर थे। 1949 में केंद्रीय असेंबली में उन्होंने आधुनिक विज्ञान के महत्व पर बल दिया था। उन्होंने यह भी कहा कि राष्ट्रीय शिक्षा का कोई भी कार्यक्रम तब तक सफल नहीं हो सकता जब तक समाज की आधी से ज्यादा आबादी तक नहीं पहुंचता।
आजादी के 78 वर्षों के बाद आज भी देश में प्रारंभिक शिक्षा पर अथाह धनराशि खर्च करने के बावजूद बच्चों में पढ़ने-लिखने के कौशल क्यों नहीं आ पा रहे हैं, इस पर गंभीरता से मंथन करने की जरुरत है। भारत की प्रारम्भिक शिक्षा की कमजोरियों के कारण ही हम शिक्षा की दौड़ में पिछड़े हैं और गुणवत्तायुक्त शिक्षा प्राप्त करने के अभाव के कारण शिक्षा की बदहाली का रोना रो रहे हैं। बताया जाता है कि सरकारी और गैर सरकारी प्रयासों एवं शिक्षा के अधिकार कानून के अमल में लाने के बाद स्कूलों में बच्चों के दाखिले की स्थिति में आशातीत सुधार परिलक्षित हुआ है। मगर गुणवत्तायुक्त शिक्षा में हम पिछड़ गये हैं। सरकारी स्कूलों के मामलों में निजी स्कूलों की स्थिति फिर भी अच्छी बताई जा रही है। सक्षम लोग आज सरकारी विद्यालयों की अपेक्षा निजी विद्यालयों में अपने बच्चों को पठन-पाठन में अधिक रूचि लेते हैं। क्योंकि उन्हें मालूम है कि सरकारी स्कूल पुरानी परिपाटी का अनुसरण कर रहे हैं। अध्यापकों की पठन-पाठन के काम में उदासीनता और लापरवाही ज्यादा है। ग्रामीण विद्यालयों की हालत अधिक बुरी है।
गुणवत्तापूर्ण शिक्षा से हमारा तात्पर्य ऐसी शिक्षा से है जो हर बच्चे के काम आये। इसके साथ ही हर बच्चे की क्षमताओं के संपूर्ण विकास में समान रूप से उपयोगी हो। कक्षा में बच्चों को चर्चाओं के माध्यम से अपनी बात कहने और ज्ञान निर्माण की प्रक्रिया में भागीदारी का मौका मिले। साथ ही कोई भी बच्चा सीखने के पर्याप्त अवसर से वंचित न रहे। कक्षा में मैत्री पूर्ण माहौल बनाया जाये जिसमें छात्र बिना झिझक के अपनी बात कह सके और शिक्षक की कही बात समझ सके। सच तो यह है बालकों को पढ़ना, लिखना और समझना जैसे कौशल नहीं मिल पाए हैं। हर साल सरकार शिक्षा बजट में बढ़ोतरी करती है। मगर प्राथमिक और उच्च प्राथमिक शिक्षा की स्थिति सुधरने की बजाय बिगड़ती जा रही है। इस कमी को सुधारे बगैर बुनियादी शिक्षा के लक्ष्य को हासिल करना संभव नहीं दिखता। सबसे पहले हमें अपनी बुनियादी और प्रारम्भिक शिक्षा की मजबूती की ओर ध्यान देना होगा। बच्चों को प्रारम्भ से ही गुणवत्ता युक्त शिक्षा प्रदान कर उसकी शुरूआती बुनियाद को सुदृढ़ करना होगा। हमारी बुनियादी शिक्षा गुणवत्तायुक्त और मजबूत होगी तो हम शिक्षा को गुणग्राही बनाकर देश और प्रदेश को विकास के राह पर आगे बढ़ा पायेंगे। मौलाना आजाद को हमारी यही सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
-बाल मुकुन्द ओझा



