‘वंदे मातरम’ भारत की स्वतंत्रता का गीत, अटूट संकल्प का भावना और जागरण का प्रथम मंत्र: अमित शाह

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नई दिल्ली। भारत के राष्ट्रीय गीत ‘वंदे मातरम’ के 150 वर्ष पूरे होने के उपलक्ष्य में देशभर में विशेष कार्यक्रम का आयोजन हो रहा है। केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने ‘वंदे मातरम्’ ब्लॉग शेयर किया है। उन्होंने ‘वंदे मातरम’ को भारत की स्वतंत्रता का गीत, अटूट संकल्प का भावना और जागरण का प्रथम मंत्र बताया। अमित शाह ने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म ‘एक्स’ पर ब्लॉग का लिंक शेयर किया। उन्होंने कहा, “‘वंदे मातरम’ स्वतंत्रता का गीत है, अटूट संकल्प की भावना है, और भारत के जागरण का प्रथम मंत्र है। राष्ट्र की आत्मा से जन्मे शब्द कभी समाप्त नहीं होते, वे सदैव जीवित रहते हैं, पीढ़ियों तक गूंजते रहते हैं। समय आ गया है कि हम अपने इतिहास, अपनी संस्कृति, अपनी मान्यताओं और अपनी परंपराओं को भारतीयता की दृष्टि से देखें। ‘वंदे मातरम’ के 150 वर्ष पूर्ण होने पर मेरा ब्लॉग…” शाह के ब्लॉग का शीर्षक ‘वंदे मातरम् – सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की प्रथम उद्घोषणा’ है।
इसमें लिखा है—”हमारे देश के इतिहास में ऐसे कई अहम पड़ाव आए, जब गीतों और कलाओं ने अलग-अलग रूपों में लोकभावनाओं को सहेजकर आंदोलन को आकार देने में अहम भूमिका निभाई। चाहे छत्रपति शिवाजी महाराज जी की सेना के युद्धगीत हों, आजादी के आंदोलन में सेनानियों के गान या आपातकाल के विरुद्ध युवाओं के सामूहिक गीत, इन गीतों ने भारतीय समाज को स्वाभिमान की प्रेरणा भी दी और एकजुट भी बनाया।
ऐसा ही है भारत का राष्ट्रीय गीत ‘वंदे मातरम’, जिसका इतिहास किसी युद्धभूमि से नहीं, बल्कि एक विद्वान बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय जी के शांत लेकिन अडिग संकल्प से शुरू होता है। सन 1875 में, जगद्धात्री पूजा (कार्तिक शुक्ल नवमी या अक्षय नवमी) के दिन उन्होंने उस स्तोत्र की रचना की जो भारत की स्वतंत्रता का शाश्वत गीत बन गया। ‘वंदे मातरम’ केवल भारत का राष्ट्रीय गीत ही नहीं, सिर्फ स्वतंत्रता आंदोलन का प्राण नहीं, बल्कि यह बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय जी द्वारा ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ की प्रथम उद्घोषणा है। इसने हमें याद दिलाया कि भारत केवल जमीन का एक टुकड़ा नहीं, बल्कि एक भू-सांस्कृतिक राष्ट्र है, जिसकी एकता उसकी संस्कृति और सभ्यता से आती है।
जैसा कि महर्षि अरबिंद ने वर्णन किया, बंकिम आधुनिक भारत के एक ऋषि थे, जिन्होंने अपने शब्दों के माध्यम से राष्ट्र की आत्मा को पुनर्जीवित किया। अपने एक पत्र में बंकिम बाबू ने लिखा: “मुझे कोई आपत्ति नहीं है यदि मेरे सभी कार्य गंगा में बहा दिए जाएं। यह श्लोक ही अनंत काल तक जीवित रहेगा। यह एक महान गान होगा और लोगों के हृदय को जीत लेगा।” औपनिवेशिक भारत के सबसे अंधकारमय काल में लिखा गया, ‘वंदे मातरम’ जागृति का प्रभात-गीत बन गया।
1896 में रवींद्रनाथ टैगोर जी ने ‘वंदे मातरम’ को धुन में पिरोया, जिससे इसे वाणी और अमरता प्राप्त हुई। यह गीत भाषा और क्षेत्र की सीमाओं से आगे बढ़कर पूरे देश में गूंज उठा। तमिलनाडु में सुब्रमण्यम भारती जी ने इसका तमिल अनुवाद किया और पंजाब में क्रांतिकारियों ने इसे गाते हुए ब्रिटिश राज को खुली चुनौती दी। 1905 में, बंग-भंग आंदोलन के दौरान ‘वंदेमातरम’ के सार्वजनिक पाठ पर प्रतिबंध लगा दिया था, फिर भी 14 अप्रैल, 1906 को बारीसाल में, हजारों लोगों ने इस आदेश की अवहेलना की। जब पुलिस ने शांतिपूर्ण सभा पर लाठीचार्ज किया, तो पुरुष और महिलाएं सड़कों पर ‘वंदे मातरम’ का नारा लगाते हुए लहूलुहान हो गए।
वहां से ‘वंदे मातरम’ का मंत्र गदर पार्टी के क्रांतिकारियों के साथ कैलिफोर्निया पहुंच गया और आजाद हिंद फौज में गूंजा, जब नेताजी के सैनिक सिंगापुर से मार्च कर रहे थे और 1946 के रॉयल इंडियन नेवी की क्रांति में भी गूंजा, जब भारतीय नाविकों ने ब्रिटिश युद्धपोतों पर तिरंगा फहराया। खुदीराम बोस से लेकर अशफाक उल्ला खान तक, चंद्रशेखर आजाद से लेकर तिरुपुर कुमारन तक, नारा एक ही था। यह अब सिर्फ एक गीत नहीं रहा, यह भारत की सामूहिक आत्मा की आवाज बन गया था। महात्मा गांधी ने स्वयं स्वीकार किया था, ‘वंदे मातरम’ में “सबसे सुस्त रक्त को भी जगाने की जादुई शक्ति” थी। महर्षि अरबिंद जी ने इसीलिए कहा था कि यह भारत के पुनर्जन्म का मंत्र है।
26 अक्टूबर को ‘मन की बात’ कार्यक्रम में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ‘वंदेमातरम’ गीत के इस इतिहास की देशवासियों को फिर से याद दिलाई और राष्ट्रीय गीत के 150 वर्ष पूर्ण होने के उपलक्ष्य में 7 नवंबर से भारत सरकार की ओर से अगले एक वर्ष तक अलग-अलग कार्यक्रमों का आयोजन करने का निर्णय लिया। इन आयोजनों के माध्यम से देशभर में ‘वंदे मातरम’ का पूर्ण गान होगा, जिससे देश की युवा पीढ़ी ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ के विचार को आत्मसात कर पाए।
आज जब हम भारत पर्व मना रहे हैं और सरदार पटेल की जयंती पर उन्हें श्रद्धापूर्वक स्मरण कर रहे हैं तो यह भी याद करते हैं कि कैसे सरदार साहब ने ‘एक भारत’ का निर्माण कर ‘वंदे मातरम’ की भावना को ही मूर्त रूप दिया। ‘वंदे मातरम’ आज भी विकसित भारत 2047 के हमारे संकल्प में प्रेरणा दे रहा है। अब इस भावना को आत्मनिर्भर और श्रेष्ठ भारत में परिवर्तित करना हमारी जिम्मेदारी है।
‘वंदेमातरम’ स्वतंत्रता का गीत है, अटूट संकल्प की भावना है और भारत के जागरण का प्रथम मंत्र है। राष्ट्र की आत्मा से जन्मे शब्द कभी समाप्त नहीं होते, वे सदैव जीवित रहते हैं और पीढ़ियों तक गूंजते रहते हैं। समय आ गया है कि हम अपने इतिहास, अपनी संस्कृति, अपनी मान्यताओं और अपनी परंपराओं को भारतीयता की दृष्टि से देखें। वंदेमातरम।

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