पाकिस्तान को सऊदी अरब का साथ, भारत के लिए कितना चिंताजनक?

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पाकिस्तान और सऊदी अरब के बीच हाल ही में हुआ सामरिक पारस्परिक रक्षा समझौता दक्षिण एशियाई राजनीति और भारत–सऊदी रिश्तों के लिहाज से एक महत्वपूर्ण घटनाक्रम है। 17 सितंबर 2025 को सऊदी क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान और पाकिस्तानी प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ ने इस ऐतिहासिक समझौते पर हस्ताक्षर किए। समझौते की सबसे अहम शर्त यह है कि अगर सऊदी अरब या पाकिस्तान में से किसी एक पर हमला होता है तो इसे दोनों देशों पर हमला माना जाएगा। यानी दोनों देश साझा सुरक्षा के तहत एक-दूसरे की रक्षा करेंगे। इस समझौते को पश्चिम एशिया और एशियाई राजनीति के कई जानकार केवल रक्षा सहयोग नहीं, बल्कि एक रणनीतिक संदेश मानते हैं। अमेरिकी विशेषज्ञ माइकल कुलेगमेन ने कहा कि यह केवल सैन्य सहयोग का मामला नहीं बल्कि पाकिस्तान का यह दिखाना है कि वह चीन, तुर्की और अब सऊदी जैसे बड़े सहयोगियों के साथ खड़ा है। हालांकि उन्होंने यह भी माना कि इसे भारत को पाकिस्तान पर हमला करने से रोकने वाली दीवार मानना जल्दबाज़ी होगी। पश्चिम एशियाई मामलों के जानकार जहाक तनवीर ने भी याद दिलाया कि सऊदी–पाक रक्षा समझौता कोई नई बात नहीं है। अतीत में ऐसे कई समझौते हुए हैं जो ज्यादातर सऊदी की सुरक्षा तक सीमित रहे, पाकिस्तान के लिए नहीं। पाकिस्तान की सेना को कई बार सऊदी हितों के लिए किराए की सेना कहा गया है। सीधे भारत के खिलाफ सैन्य सहयोग की संभावना फिलहाल बेहद कम है।
पाकिस्तान और सऊदी अरब का संबंध ऐतिहासिक रूप से गहरा रहा है। ईरान–इराक युद्ध के दौरान (1980–88) पाकिस्तान ने सऊदी को सुरक्षा का भरोसा दिया था। 1965, 1971 और कारगिल 1999 के भारत–पाक युद्धों में सऊदी अरब ने पाकिस्तान को वित्तीय और राजनयिक मदद दी, पर उसने कभी भारतीय मोर्चे पर अपनी सेना नहीं भेजी। 2014–15 में सऊदी ने इस्लामी सैन्य गठबंधन बनाया था, जिसका नेतृत्व पाकिस्तान के पूर्व सेना प्रमुख राहील शरीफ को सौंपा गया था। इन घटनाओं से यह साफ है कि सऊदी और पाकिस्तान का रिश्ता परस्पर ज़रूरतों और रणनीतिक लाभ पर आधारित रहा है। इस नए डिफेंस एग्रीमेंट ने इस रिश्ते को एक नया आयाम दिया है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि सऊदी अरब भारत के खिलाफ सीधी सैन्य कार्रवाई करेगा।
भारत और सऊदी अरब के बीच के रिश्तों की बात करें तो सऊदी ने कभी भी भारत विरोधी आतंकवाद को समर्थन नहीं दिया। इसके उलट, दोनों देशों के बीच ऊर्जा व्यापार, निवेश और प्रवासी भारतीयों के माध्यम से मज़बूत आर्थिक और सामाजिक संबंध हैं। लगभग 20 लाख से अधिक भारतीय सऊदी अरब में रहते हैं और वहां की अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण योगदान करते हैं। सऊदी अधिकारी पहले ही स्पष्ट कर चुके हैं कि भारत के साथ उनके रिश्ते मज़बूत बने रहेंगे और वे क्षेत्रीय शांति के लिए योगदान देते रहेंगे। भारत के विदेश मंत्रालय ने भी संतुलित रुख अपनाते हुए कहा कि वह इस समझौते पर नज़र रख रहा है और इसे वैश्विक व क्षेत्रीय सुरक्षा के नजरिये से देखेगा। इसका मतलब है कि भारत इस समझौते को अपनी रणनीतिक प्राथमिकताओं के अनुसार परखेगा, लेकिन फिलहाल इसके कारण भारत–सऊदी संबंधों में कोई बड़ा झटका आने की संभावना नहीं है।
पाकिस्तान के लिए यह समझौता एक बड़ी उपलब्धि है क्योंकि सऊदी अरब न केवल तेल और वित्तीय संसाधनों में समृद्ध है, बल्कि उसका कूटनीतिक प्रभाव भी बहुत बड़ा है। सऊदी के साथ डिफेंस डील होते ही पाकिस्तान ने निवेश के लिए दबाव बनाना शुरू कर दिया। पाकिस्तान के रेल मंत्री हनीफ अब्बासी ने बताया कि सऊदी और संयुक्त अरब अमीरात से रेलवे के आधुनिकीकरण के लिए 2.5 अरब डॉलर निवेश की मांग की गई है। पाकिस्तान की रेलवे अब भी पुराने ढर्रे पर चल रही है और किसी भी तरह का निवेश उसके लिए बड़ी राहत होगी। इसके अलावा सऊदी ने पहले ही हेल्थ और एनर्जी प्रोजेक्ट्स के लिए 121 मिलियन डॉलर निवेश का ऐलान किया था। पाकिस्तान की मौजूदा आर्थिक स्थिति को देखते हुए, जो भारी ऋण और राजनीतिक अस्थिरता से जूझ रहा है, यह निवेश उसके लिए जीवनरेखा साबित हो सकता है।
कूटनीतिक मोर्चे पर भी पाकिस्तान को सऊदी से फायदा मिलने की संभावना है। सऊदी अरब के अमेरिका, रूस, चीन और भारत सभी से अच्छे रिश्ते हैं। पाकिस्तान उम्मीद कर सकता है कि सऊदी उसके लिए वैश्विक मंचों पर पैरवी करेगा, खासकर तब जब पाकिस्तान अफगानिस्तान की तेहरिक-ए-तालिबान पाकिस्तान जैसी चुनौतियों से परेशान है। धार्मिक दृष्टि से भी पाकिस्तान को फायदा हो सकता है। सऊदी में इस्लाम के पवित्र स्थल मक्का और मदीना स्थित हैं। पिछले वर्ष लगभग 80,000 पाकिस्तानी हज परमिशन न मिलने से वंचित रह गए थे, जबकि पाकिस्तान से हर साल करीब 2 लाख लोग हज के लिए सऊदी जाते हैं। नए समझौते के बाद पाकिस्तान हज कोटा और धार्मिक सुविधाओं में रियायतें पाने की कोशिश करेगा।
सऊदी के दृष्टिकोण से देखें तो यह समझौता एक तरह की बीमा पॉलिसी है। हालिया घटनाओं, जैसे कतर पर इज़राइली हमले और अमेरिकी सुरक्षा गारंटी पर कम होते भरोसे, ने उसे नए साझेदार खोजने पर मजबूर किया है। पाकिस्तान जैसे परमाणु संपन्न देश के साथ यह डील सऊदी को एक अतिरिक्त सुरक्षा परत देती है। इसके अलावा सऊदी की बहुध्रुवीय रणनीति—अमेरिका से रिश्ते बनाए रखते हुए रूस, चीन और तुर्की जैसे देशों से भी निकटता बढ़ाने की—अब पाकिस्तान को भी अपने नेटवर्क में शामिल कर रही है।
हालांकि, दक्षिण एशियाई राजनीति पर इसका असर सीमित रहेगा। चीन, तुर्की, पाकिस्तान और सऊदी अरब का संभावित ब्लॉक भारत पर कूटनीतिक दबाव डाल सकता है, लेकिन भारत की आर्थिक शक्ति, वैश्विक साझेदारियाँ और सऊदी के साथ ऊर्जा व निवेश के गहरे हित इस डील को भारत के खिलाफ सीधा मोर्चा बनने से रोकेंगे। सऊदी की नीति “न काहू से दोस्ती, न काहू से बैर” पर आधारित है, इसलिए वह भारत के साथ रिश्तों को नुकसान पहुँचाने वाला कोई कदम नहीं उठाएगा।
कुल मिलाकर, यह रक्षा समझौता पाकिस्तान के लिए आर्थिक और कूटनीतिक राहत, सऊदी के लिए अतिरिक्त सुरक्षा गारंटी, और भारत के लिए एक रणनीतिक चेतावनी के रूप में देखी जा सकती है। भारत को पश्चिम एशिया में अपनी साझेदारियों को और मज़बूत करना होगा और क्षेत्रीय शांति को बढ़ावा देने के प्रयास जारी रखने होंगे। सऊदी–पाक समझौता निश्चित रूप से भू-राजनीतिक समीकरणों को नया मोड़ देगा, लेकिन यह भारत–सऊदी रिश्तों में बड़ा व्यवधान पैदा करने या सीधे सैन्य खतरे की स्थिति बनाने की संभावना नहीं रखता। बल्कि यह घटना इस बात की याद दिलाती है कि बदलते वैश्विक परिदृश्य में रिश्तों की प्रकृति बहुआयामी है, और देशों को अपने हित साधने के लिए विविध साझेदारियाँ बनानी पड़ती हैं।

– महेन्द्र तिवारी

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