दिल्ली-हरिद्वार राजमार्ग के किनारे शोरगुल वाले एक रेस्तरां में सुभाष भोपा चुपचाप एक कोने में बैठकर अपना ‘रावणहत्था’ बजाते हैं। इस प्राचीन वाद्य यंत्र की मद्धिम ध्वनि वाहन के गुजरने की आवाज़ और भोजन कर रहे लोगों की बातचीत के शोर में दबकर रह जाती है। चमकीली पगड़ी और साटन प्रिंट की सदरी पहने सुभाष उन अंतिम भोपों (राजस्थान के पारंपरिक पुजारी-गायक) में से हैं, जो आज भी रावणहत्था बजाते हैं। रावणहत्था एक झुका हुआ तार वाला वाद्य यंत्र है, जिसके बारे में माना जाता है कि इसका निर्माण राक्षस राज रावण ने भगवान शिव की आराधना के लिए किया था।
सुभाष हालांकि आजकल अधिकतर बॉलीवुड गानों की धुन बजाते हैं। उन्होंने कहा, ‘‘लोक संगीत मेरी पहली पसंद है, लेकिन लोग बॉलीवुड गानों की धुन पसंद करते हैं। वे मुझे आजीविका कमाने में मदद करते हैं।’’ सुभाष और उनकी पत्नी गर्मियों में राजस्थान के चुरू जिले के खबरपुरा गांव स्थित अपने घर को छोड़कर उत्तर प्रदेश के मेरठ, मुजफ्फरनगर और अन्य शहरों में रोजी-रोटी के लिए यात्रा करते हैं, क्योंकि 700 वर्ष पुरानी कला ‘पाबूजी की फड़’ अपनी पहचान धीरे-धीरे खोती जा रही है जिसमें मंत्रमुग्ध करने वाले संगीत के साथ भोपा लोक देवता पाबूजी की वीरतापूर्ण गाथाएं गाते हैं।
इस दयनीय स्थिति की दो मूल वजहें- कलाकारों का भूमिहीन होना और जलवायु परिवर्तन हैं। भारतीय राष्ट्रीय कला एवं सांस्कृतिक विरासत ट्रस्ट (आईएनटीएसीएच) के जितेन्द्र शर्मा के मुताबिक राजस्थान में पाबूजी को लक्ष्मण का अवतार माना जाता है। उनकी कहानी को कपड़े पर लिखा जाता है, जिसे फड़ कहते हैं और लोक गायक जिन्हें भोपा कहते हैं, गांव-गांव जाकर उनकी कहानी गाते और सुनाते हैं। उन्होंने बताया कि इसके लिए कोली समुदाय कपड़ा बुनता है, जबकि ब्राह्मण उसपर चित्र बनाते हैं। रायका, एक चरवाहा समुदाय जो व्यापक रूप से ऊंट चराने के लिए जाना जाता है, पाबूजी की पूजा करता है, क्योंकि उनका मानना है कि वह उनके जानवरों की रक्षा करते हैं।



